10.8.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का श्रावण शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 10 अगस्त 2024 का सदाचार सम्प्रेषण *११०८ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८१  (कालयुक्त संवत्सर )  10 अगस्त 2024  का  सदाचार सम्प्रेषण 

  *११०८ वां* सार -संक्षेप

आंशिक पुण्यकर्मों की प्राप्ति के रूप में मिला प्रातःकाल का यह चिन्तन का समय अद्भुत है अन्यथा दिन भर तो सांसारिक प्रपंचों में हम फंसे ही रहते हैं हमें उलझनों के उपाय खोजने चाहिए समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए 

हम चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन में रत हों अपनी संस्कृति पर विश्वास करें 


जहाँ जो है वहीं पर संगठन के सूत्र को खोजे, 

स्वयं की क्षुद्र स्वार्थी वृत्ति पर लानत तुरत भेजे, 

न सोये खुद न सोने दे जवानी को किसी हद तक 

बिखर जाएँ न जबतक दुश्मनों के जिस्म के रेजे।



न केवल बात हो व्यवहार पर उतरें सभी साथी 

दिखेगा वह सुअर भर है लगा था जो बड़ा हाथी 

स्वयं सन्नद्ध होकर हाथ पकड़ो साथ वाले का 

कि काँधे पर धनुष हो पीठ पर वाणों भरी भाथी।




२५ जून १९७५ को देश में आपातकाल लागू हो गया जो २१ मार्च १९७७ तक चला मूर्खों के लोकतन्त्र में सब संभव है 

तत्कालीन राष्ट्रपति माo फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३५२ के अधीन आपातकाल की घोषणा की थी क्योंकि प्रधानमन्त्री की कुर्सी जा रही थी  आचार्य जी जनता समाचार का संपादन करते थे विष्णु जी छपाने के लिए ले जाते थे  ऐसे अनेक काम हुए इन गिलहरी प्रयासों के पुंजीभूत रूप का अद्भुत परिणाम निकला उन्हीं प्रधानमन्त्री इन्दिरा जी के वंशज कह रहे हैं कि हम संविधान बचा रहे हैं यह स्वार्थ की पराकाष्ठा है 

स्वार्थ को जब परमार्थ के रूप में हम प्रस्तुत करने की चेष्टा करते हैं तो हम कालनेमि बन जाते हैं ऐसे कालनेमियों का ध्वंस  वज्रांग हनुमान जी करते हैं


जब जब होई धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी। तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सज्जन पीरा।।”


राम अपने स्वरूपों में कभी एक पुंजीभूत रूप में व्यक्त होते हैं और कभी आंशिक रूप में 

हनुमान जी देवता उपदेवता शक्ति के केंद्र जब हमारे भीतर प्रवेश करते हैं तो हम वही वही हो जाते हैं यह अनुभूति करने के बाद उपनिषदकार लिखता है 


कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥

स्थितप्रज्ञ होना अच्छा है लेकिन इसका अर्थ कर्मकुंठित होना नहीं निराश होना नहीं जैसी परिस्थिति आई उसके अनुसार कर्म करके निर्लिप्त होकर बैठ जाना 

स्थितप्रज्ञ होना कहलाता है जैसे भगवान् कृष्ण 

महाभारत में अद्भुत रोचक भावना प्रधान प्रसंग हैं आचार्य जी ने महाभारत युद्ध की तुलना कबड्डी से की हम मरते जीते रहते हैं कबड्डी यही शिक्षा देता है 

आचार्य जी ने बताया भगवान शंकराचार्य अपने कार्यों में जुटे ही रहे ३२ वर्ष की आयु मिली लेकिन अनेक कार्य कर डाले ऐसे शंकराचार्यों की परम्परा आज भी आंशिक रूप में चल रही है 



इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अमित जी का नाम क्यों लिया राष्ट्र की सेवा में कौन कौन लगा था संकट में उम्मीद की ज्योति कैसे दिखेगी क्या अस्तव्यस्त न होने पाए जानने के लिए सुनें