प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आश्विन शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 14 अक्टूबर 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
*११७३ वां* सार -संक्षेप
त्यागपूर्ण भोग के साथ ही हमें कोई भी कार्य करना चाहिए l कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता है l
सेवा ही हमारा परम धर्म है l सेवा धर्म गहन तत्त्व है l कुछ विद्वानों ने सेवा की व्याख्या और विश्लेषण करने का प्रयास किया है
हमारे ऋषियों ने सेवा के प्रकार बताए हैं
ज्ञान -पाद, योग -पाद, क्रिया -पाद और चर्या -पाद प्रकार हैं
क्रिया -पाद और चर्या -पाद के अन्तर्गत भौतिक सेवा प्रविष्ट है
शुद्धाद्वैत के प्रणेता वल्लभाचार्य सेवा के स्वरूपों का वर्णन करते रहते थे इनके अनुसार सेवा के तीन स्थान हैं गुरु,संत और प्रभु
गुरु अर्थात् जो जीवन के अंधकार को दूर कर दे, संत अर्थात् जिसमें कोई भौतिक विकार ही न हो दूसरों के दुःखों को दूर करना संतत्व है गुरु और संत नामक ये दो सोपान साधन हैं और प्रभु की सेवा साध्य है
पुराणों में कर्मकांडीय सेवा वर्णित है विस्तार को प्राप्त इस कर्मकांड में हम लोग इतना अधिक उलझ गए कि तत्त्व पर न ध्यान देकर प्रपंच करते रहे
उपनिषदों में सेवा को विस्तार से बताया गया है
दीन निर्बल असहाय दुःखी की सेवा करना भौतिकता की सेवा है इसे भी बहुत से लोग प्रभु की सेवा ही मानते हैं उस व्यक्ति में ही वे परमात्मा का स्वरूप देखते हैं ऐसी सेवा का स्वरूप अद्भुत है
हमें सेवा करने का एक अद्भुत अवसर २७ अक्टूबर के लिए मिला है जब सरौंहां में स्वास्थ्य शिविर लगने जा रहा है हम उस अवसर का लाभ उठाएं
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने vibgyor का उल्लेख क्यों किया पद्मपुराण, कोरोना की चर्चा क्यों की, कुत्ता चाट ले वाला क्या प्रसंग है
आदि जानने के लिए सुनें