प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आश्विन शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 5 अक्टूबर 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
*११६४ वां* सार -संक्षेप
आचार्य जी का प्रयास रहता है कि हमें शक्ति, बुद्धि,विचार, कौशल की प्राप्ति हो हम मानसिक रूप से उलझनों में न रहें क्योंकि इससे पाचन भी विकृत होता है
देशसेवा करने में उलझनें आड़े न आयें इसके लिए अध्ययन स्वाध्याय चिन्तन मनन लेखन व्यायाम प्राणायाम आदि आवश्यक है
अपने इष्ट से प्रार्थना करें कि
स्वयं के मान या अपमान की चिंता न क्षणभर हो
कभी भी स्वार्थ का लौलुप्य मन में भी न कणभर हो l
सतत् स्वर गूँजता मस्तिष्क में देशानुरागी हो
प्रकृति में ईर्ष्या कुण्ठा निराशा भी न तृणभर हो।
विधाता! इस दशा की जिंदगी का सार मुझको दे
सदा संतोष संयम शौर्य का संसार मुझको दे l
सरलता शीलवत्ता के सहित निर्द्वन्द्व मन कर दे
*कि मेरी कर्मनिष्ठा को समर्पणभाव से भर दे* l
आचार्य जी ने तैत्तिरीय उपनिषद् की भृगुवल्ली की चर्चा की
भृगु जिनका जन्म 5,000 ईसा पूर्व में ब्रह्मलोक-सुषा नगर (वर्तमान ईरान) में हुआ था परमात्मा को जानने की उत्कट इच्छा के कारण अपने पिता वेदज्ञ महापुरुष ब्रह्मनिष्ठ वरुण के पास गए
और कहा
भगवन् मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं मुझे ब्रह्म के तत्त्व को समझाइये
पिता कहते हैं अन्न प्राण
नेत्र श्रोत मन और वाणी
आदि ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं इन सबमें ब्रह्म की सत्ता स्फुरित हो रही है
और फिर पुत्र को तप करने के लिए भेज दिया
भृगु पिता के पास पहुंचे और बोले अन्न ही ब्रह्म है
तो पिता चुप रहे
भृगु पुनः तपस्या करने चले गए
इसके आगे आचार्य जी ने क्या बताया किशोरीदास वाजपेयी जी का पाचन क्यों सही नहीं रहता था विवेकानन्द के मन में क्या आया शिवजी को पशुपति क्यों कहा जाता है हम श्राद्ध क्यों करते हैं जानने के लिए सुनें