25.11.24

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 25 नवम्बर 2024 का सदाचार सम्प्रेषण *१२१५ वां* सार -संक्षेप

 हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रगट होय मैं जाना'


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८१  (कालयुक्त संवत्सर ) 25 नवम्बर 2024  का  सदाचार सम्प्रेषण 

  *१२१५ वां* सार -संक्षेप


शिवो भूत्वा शिवं यजेत्'

हमारे यहां का एक सिद्धान्त वाक्य है 

 जिसका अर्थ है शिव बनकर शिव का आराधन चिन्तन मनन करो

आचार्य जी,जिनके इन सदाचार संप्रेषणों में व्यवस्थित विचारों का एक अजस्र प्रवाह बहता रहता है, का प्रयास रहता है कि हमारे भाव उस भावना से संयुत हो जाएं जो बहुत विस्तार लिए हुए है

आचार्य जी जगो और जगाओ का मन्त्र दे रहे हैं 

वही पिता वही गुरु श्रेष्ठ होता है जो यह कामना करता है कि वह अपने पुत्र से अपने शिष्य से पराजित हो जाए जैसा भगवान् राम के जीवन में भी घटित हुआ है 

वे अपने पुत्रों से हार कर आनन्दित हैं 

उन्होंने राम रूप में आकर जो लीला की वह अद्वितीय है उन्होंने बताया कि रामात्मकता क्या है रामराज्य की परिभाषा क्या है तुलसीदास जी ने राम का रामत्व अत्यन्त सुन्दर व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया


श्रीरामचरित मानस के रूप में कविता का जो स्वरूप सिन्धु प्रयास करते हुए तुलसीदास ने  प्रस्तुत किया उसका कोई अन्य उदाहरण है ही नहीं


कविता मन का विश्वास भाव की भाषा है

हारे मानस की आस प्राण परिभाषा है


वरदान भारती का है ये शिव का संयम


शुभ सुखद सहज करती जीवन का  पथ दुर्गम


 भटके राही को राह दिखाती कविता है

कविता रजनी में चांद दिवस में सविता है


संसारी घमंड वाले मैं की अनुभूति न कर वास्तविक मैं की अनुभूति करते हुए तुलसीदास जी विधर्मी के शासन से आहत हो जाते हैं उस समय की दशा बहुत खराब थी सत्य के अनुसंधान में लगने के कारण शौर्य को हमने विस्मृत कर दिया था हम व्यक्तिवादी हो गए थे समाजोन्मुखता का ध्यान नहीं था 

ऐसे समय में तुलसीदास जी ने हमें प्रभुता, शक्ति की अनुभूति कराई

उन्हें परिवर्तन आवश्यक लगा मानस ने जन जन में उत्साह भर दिया 


धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥

निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥



धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।

जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥ 184॥



गाय का रूप धारण कर  पृथ्वी ने रोकर उनको अपना दुःख सुनाया किन्तु किसी से कुछ काम न बना

तो ब्रह्मा ने कहा 

 हे धरती! मन में धैर्य धारण करके प्रभु के चरणों का स्मरण करो क्योंकि वे अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे


आज भी वैसी ही समस्याएं हैं किन्तु हम धीरे धीरे उनसे पार पा रहे हैं रामात्मक होकर शक्ति पराक्रम सामर्थ्य की अनुभूति कर रहे हैं



कोटि कोटि हिन्दुजन का,

हम ज्वार उठा कर मानेंगे,

सौगंध राम की खाते हैं,

भारत को भव्य बनाएंगे,

भारत को भव्य बनाएंगे।।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने अशोक सिंघल जी, लक्ष्मीशंकर जी की चर्चा क्यों की आचार्य जी ने उन्नाव  के किस मन्दिर की चर्चा की बाबा बागेश्वर, पुष्पेन्द्र का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें