हमारे देश की धरती गगन जल सभी पावन हैं
सभी सुन्दर सलोने शान्त सुरभित मञ्जु भावन हैं
यहां पर जो रमा मन बुद्धि आत्मिक अतल की गहराई से
उसको लगा करती धरा माता और सुजन सब भाई से
पर सिर्फ धन की प्राप्ति जिनका जन्मजात स्वभाव है
उनको सदा दिखता यहां सर्वत्र अमित अभाव है
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 6 दिसंबर 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
*१२२६ वां* सार -संक्षेप
शक्ति का अर्जन विसर्जन दम्भ का
मुक्ति का भर्जन भजन प्रारम्भ का
संगठन संयमन युग की साधना है
देशहित शुभ शक्तियों को बाँधना
है
नित्य प्रातः यही शिवसंकल्प जागे
पराश्रयता का यहाँ से भूत भागे
उठें अपनों को उठायें कर्मरत हों
बुद्धिमत्ता सहित हम सब धर्मरत हों l
ज्यों ही हमें शक्ति की अनुभूति होती है तो दंभ आ जाता है उसी दंभ को विसर्जित करने के लिए कवि कह रहा है मुक्ति का अर्थ किसी भी विषय के यथार्थ को समझ लेना है जिसके भर्जन को कवि स्वीकार रहा है कवि परमात्मा के उस स्वरूप को समझते हुए
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
शक्ति की अनुभूति कर रहा है यही कवित्व है कवि सर्वद्रष्टा होता है कवि के ऊपर परिस्थितियों का बहुत प्रभाव पड़ता है वह अत्यन्त संवेदनशील होता है जिसमें यह कवित्व प्रविष्ट हो जाता है वह किसी भी विषय को भावपूर्ण ढंग से व्यक्त करने में सक्षम होता है
मनुष्य के जीवन में रसात्मकता अद्भुत होती है लेकिन अनुभव उन्हीं को होती है जिन पर राम की कृपा होती है
कवित्व की अनुभूति और उस कवित्व की अभिव्यक्ति भगवान् की कृपा का प्रसाद है जो इस कवित्व से आवेशित है वह संपूर्ण सृष्टि को आनन्दमय देखना चाहता है उस आनन्द में विकार के प्रवेश से वह क्रुद्ध हो जाता है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने डा पंकज जी का उल्लेख क्यों किया आचार्य जी ने कौन सा स्वप्न देखा वास्तव में कविता क्या है जानने के लिए सुनें