त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।।
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज माघ कृष्ण पक्ष पञ्चमी तिथि विक्रमी संवत् २०८१ तदनुसार 18 जनवरी 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१२६९ वां* सार -संक्षेप
अपने शिक्षक धर्म का पालन करते हुए अनेक विचारों से आवृत्त हुए असामान्य बुद्धिमान् ज्ञानवान् मतिमान् संवेदनशील भावनासम्पन्न विशुद्ध आत्मा परमात्मा के प्रति अनुरक्त आचार्य जी नित्य हमें स्मरण कराते हैं हमें जाग्रत करते हैं
(जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक)
कि हमारा कर्तव्य निर्विकार होते हुए कि हमें संसार से सांसारिक वस्तुओं से किसी व्यक्ति से किसी स्थान से कोई लगाव नहीं रह गया शान्तचित्त होते हुए एकांत खोजकर समाधिस्थ होने के लिए नहीं है हमारा कर्तव्य विश्वासपूर्ण ढंग से अपने लक्ष्य की ओर पग बढ़ाने के लिए है क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां राष्ट्र-निष्ठा से परिपूर्ण संगठित कर्मशील योद्धाओं के निर्माण की आवश्यकता की ओर संकेत कर रही हैं आचार्य जी जिनके भाव हमें प्रभावित करते ही हैं हमें शौर्यप्रमंडित अध्यात्म की महत्ता को जताने वाली शिक्षा से समन्वित करते रहते हैं और सचेत करते हैं कि हम कर्म -कुंठा से ग्रसित न हो जाएं
हम कर्म अकर्म विकर्म को जानें शरीर को शुद्ध रखते हुए जिससे मन उद्बुद्ध रहे बुद्धि प्रबुद्ध रहे कर्म को अभ्यास में ले आएं उसमें दबाव लालच न हो
जैसा युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए रणक्षेत्र में भगवान् कृष्ण अर्जुन को बताते हैं
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
जहां जिस ठौर जैसे दौर में भी हों वहीं जागें
कि अपने इष्ट से वरदान बस केवल यही मांगें
हमारा तन सदा साथी रहे मन शांत संयत हो
*चुनौती कोइ भी हो* हम न उससे भीत हों भागें
अपनी परीक्षा लेकर स्वयं को अंक देने से क्या तात्पर्य है, बैच १९८८ के भैया पंकज अवस्थी जी की चर्चा क्यों हुई
अतिथि यदि गुलदस्ता है तो क्या होता है संगठन से आनन्द की प्राप्ति न हो तो संगठन क्या लगता है
कल की बैठक की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें