प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८१ तदनुसार 9 जनवरी 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१२६० वां* सार -संक्षेप
ये सदाचार संप्रेषण अद्भुत हैं व्यर्थ का प्रलाप नहीं है आचार्य जी नित्य हमें जो उनके भाव -पुत्र हैं प्रेरित करते हैं ताकि हम भाव -जगत् से परिचित हो सकें अपने भीतर की प्रच्छन्न शक्ति का अनुभव कर सकें अपने भीतर स्थित तत्त्व को जान सकें
(वस्तु और व्यक्ति दोनों में एक तत्त्व है और वह तत्त्व है एकोऽहं बहु स्याम की इच्छा लेकर बैठा हुआ परमात्मा यह आत्म -कृतज्ञता है कि हम उस परमात्मा को जान लें जो भीतर ही बैठा है )
अपने मूल शास्त्रीय अध्ययन के लिए उत्साहित हो सकें संसार को कुछ देने की भावना विकसित कर सकें
दंभ से दूर हो सकें
जो जितना कर्महीन है वह उतना ही व्यर्थ का है इससे इतर जो जितना कर्मयुक्त है वह उतना ही उपयोगी
विद्या अर्थात् मैं कौन हूं मैं वही हूं को जानना और अविद्या अर्थात् संसार का अध्ययन विद्या -अविद्या दोनों को जानना आवश्यक है
सहज कर्म करने में ऊबें नहीं
संसारत्व से मुक्त होकर ही हम अमरत्व के उपासक हो सकते हैं
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।
अर्जुन को समझाते हुए भगवान् कहते हैं यह देही आत्मा सभी के शरीर में सदैव अवध्य है, अतः समस्त प्राणियों के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं है
देह और देही दोनों को जानना जरूरी है यही विरक्ति है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि परम्परा का संचालन भारतीय जीवन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है और हम सभी चाहते हैं कि हमारी परम्परा अक्षुण्ण रहे
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