प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज माघ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी/ चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८१ तदनुसार 10 फरवरी 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१२९२ वां* सार -संक्षेप
कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह - माया - मलु ॥१॥
कलियुग ने क्रोध कर धर्म और ईश्वरभक्ति रुपी कल्याण के मार्गों का लोप कर दिया है मोह, माया और पापों की नित्य वृद्धि हो रही है ऐसे में शान्ति की भावना रखते हुए सनातनी सोच रखने वाले आचार्य जी नित्य प्रयास करते हैं कि हम जो भारत का भविष्य हैं
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्। क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्।
को ध्यान में रखते हुए इन सदाचार संप्रेषणों को सुनकर
आनन्द का अनुभव करें कर्मानुरागी बनें,योगाभ्यासी भाव से कार्य और व्यवहार करें,मंजिल पाने के लिए लगातार पतवार चलाने का संकल्प लें षड्विकारों का परित्याग करें मनुष्यत्व की सीढ़ियां चढ़ते हुए ईश्वरत्व को प्राप्त करने की भावना रखें हम अपने आत्म को पहचानें क्योंकि हमारे भीतर जो आत्म बैठा है अर्थात् ईश्वर जो अंशरूप में बैठा है उसे पहचानना नितान्त आवश्यक है जब उसका बोध हमें नहीं हो पाता है तो हम अपने को असमर्थ पाते हैं दूसरे व्यक्ति के बड़े बड़े कार्यों पर आश्चर्य होता है जो आत्म को पहचान लेता है
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
इस जीवात्मा को तुम रथ का स्वामी समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है l
इसके अतिरिक्त दीनदयाल शोध संस्थान के प्रतिनिधि अभय जी का नाम आचार्य जी ने क्यों लिया पूरे परिवार के साथ चित्रकूट कौन पहुंचा था जानने के लिए सुनें