सिंधु की उपराम लहरों को सरोवर मत समझना ,
देख मनहर रंग ज्वालामुखी के हरगिज न छूना ,
विश्व का जंजाल सबकी समझ में आना कठिन है ,
इसलिए परमात्म चिंतन से कभी विचलित न होना ।।
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज फाल्गुन कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८१ तदनुसार 15 फरवरी 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१२९७ वां* सार -संक्षेप
संपूर्ण संसार इसी प्रपंच में फंसा हुआ है कि यह मेरा है यह तेरा है
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥
हम भी इसी संसार में हैं किन्तु संपूर्ण वसुधा को अपना कुटुम्ब कहने वाली हमारी संस्कृति इससे इतर संदेश देती है हमारी संस्कृति यज्ञमयी संस्कृति है जिसका सार यह है कि हम जीवन के हर पहलू में स्वार्थ से ऊपर उठकर समर्पण,त्याग सेवा को महत्त्व दें समाज और देश के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझें
और यह ध्यान रखें कि दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का हमें त्याग नहीं करना चाहिए और तब
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।
सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला वह व्यक्ति जो स्पृहारहित और जितात्मा है, संन्यास के माध्यम से परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है।
सिद्धि को प्राप्त पुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है जिसके हम अंश हैं और उसी अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देते हैं
यदि कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
आचार्य जी परामर्श दे रहे हैं कि अपने मन को अपने तन को अपने जीवन को उल्लासमय बनाने के लिए पूजाभाव से यज्ञभाव से स्वाध्याय करें
इसके अतिरिक्त आत्मशोध और आत्मबोध में क्या अन्तर है आचार्य जी ने भैया आकाश मिश्र जी का नाम क्यों लिया राहुल गांधी अटल वाजपेयी का उल्लेख क्यों हुआ
भगवा ध्वज गुरु क्यों हुआ
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।। के भाव से इतर इन्द्रियों से युक्त होकर हमारे दंभयुक्त होने पर हमारा क्या होता है
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