ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र कृष्ण पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८१ तदनुसार 21 मार्च 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१३३१ वां* सार -संक्षेप
यह परमात्मा की महती कृपा है कि हमें मनुष्य का शरीर प्राप्त है इसी शरीर में
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।।
तत्त्व शक्ति विश्वास आदि बहुत कुछ है हम अपने मनुष्यत्व की अनुभूति करते हुए, कि शरीर से मन तक मन से बुद्धि तक बुद्धि से विचार तक विचार से यशस्विता तक परमात्मा द्वारा सौंपी गई एक विधि व्यवस्था है, अधिक से अधिक आनन्द के कार्य करने का प्रयास करें
यह सर्वविदित है कि प्रशंसा से आनन्द की अनुभूति होती है
किसी व्यक्ति के अच्छे कर्मों से अर्जित कीर्ति सदैव अस्तित्व में रहती है
चलालमिदं सर्वं कीर्तिर्यस्य स जीवति
सहज व्यक्तियों के मन में एक आकर्षण रहता है जिससे कोई वस्तु स्थान व्यक्ति अच्छा लगता है वे एक सहज जीवन जीते हैं उसी सहज जीवन द्वारा भक्ति भाव में हम राष्ट्र की सेवा करते हैं हमारे राष्ट्र भारत की भूमि परमात्मा की अद्भुत लीला स्थली है अपने इस भारत देश की,इसकी परम्परा की ,सनातन धर्म की भक्ति पूर्वक जो उपासना करता है वह भी आनन्दार्णव में तैरता रहता है
देशभक्ति भगवतभक्ति एक ही है हम अपनी भूमिका को पहचानते हुए अपने कर्तव्य को करें और हमारा कर्तव्य है राष्ट्र निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
हम सगुणोपासक हैं
हम मन्दिरों में मूर्तियों में सहज रूप से मन लगा लेते हैं
अर्जुन जब पूछते हैं कि सगुण और निर्गुण अव्यक्त ब्रह्म की उपासना में क्या श्रेष्ठ है क्या सरल है
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।
तो भगवान् कहते हैं
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।12.2।।
मुझ साकार में मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने २१ मार्च १९५० की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें