12.4.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का चैत्र शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 12 अप्रैल 2025 का सदाचार सम्प्रेषण *१३५३ वां* सार -संक्षेप

 जग हट वाड़ा स्वाद ठग, माया वेसों लाइ।

राम चरन नीकों ग्रही, जिनि जाइ जनम ठगाई॥


प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 12 अप्रैल 2025 का  सदाचार सम्प्रेषण 

  *१३५३ वां* सार -संक्षेप


जब जीव माया से घिर जाता है

भूमि परत भा ढाबर पानी, जनु जीवहिं माया लिपटानी

, तो वह भ्रम, दुःख और उलझनों से भर जाता है। ऐसे समय में माया मुक्त होकर *"आत्मस्थ"* होना अर्थात् *अपने भीतर लौटना* – ही उसका सच्चा समाधान है। यह मार्ग साधना, ज्ञान, सेवा और प्रेम से होकर जाता है। माया के अंधकार में आत्म को पहचानना ही वास्तविक जागरण है।इन सदाचार वेलाओं का यही उद्देश्य है कि हम मायामय चिन्तन से बचें आत्मस्थ होने का प्रयास करें किन्तु आत्मस्थता इतनी कि हम समाज और देश को न भूलें हम शक्तिसम्पन्न होते हुए संगठित होते हुए महापुरुषों की सन्निधि करते हुए देश हित के कार्य करें क्योंकि हमारा लक्ष्य वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः इसी की याद दिलाता है हमारे राष्ट्र पर सदैव ही मायावी लोगों द्वारा संकट आया है और आज भी है ऐसे समय में हमारा एक कर्तव्य बन जाता है क्योंकि हम मनुष्य हैं हमें मनुष्यत्व की अनुभूति होनी ही चाहिए  भगवान् तक ने मनुष्य के रूप में जन्म लेने की आवश्यकता समझी है 


बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥ 192॥


ब्राह्मण अर्थात् जो ब्रह्म के चिन्तन में निर्विकार रूप से लीन रहे , गो, देवता और  परोपकारी संतों के लिए भगवान् ने मनुष्य का अवतार लिया।


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।


धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।


 वे अज्ञानमयी माया और उसके गुण (सत, रज, तम) साथ ही बाहरी या भीतरी इंद्रियों से परे हैं। उनका दिव्य शरीर अपनी इच्छा से ही बना है

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥


मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है, जो समस्त अन्धकार से परे है। जो व्यक्ति उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से दूर होने का कोई अन्य मार्ग नहीं है।

आचार्य जी ने इस बात पर पुनः बल दिया कि हम चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन में अवश्य रत हों 

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