प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज वैसाख कृष्ण पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 14 अप्रैल 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१३५५ वां* सार -संक्षेप
हम इन सदाचार संप्रेषणों को स्वयं सुनें और अपने परिवार को भी सुनाएं ताकि इनके सदाचारमय विचार ग्रहण कर हमारे संस्कार सुरक्षित रह सकें
हमारे स्वरूप परिवर्तित हो जाते हैं किन्तु स्वभाव परिवर्तित नहीं होता इस कारण हमें भाव की पूजा करनी चाहिए भाव का आनन्द लेने का प्रयास करना चाहिए और भाव को भक्ति तक पहुंचाने का हमें प्रयास करना चाहिए
*भक्ति* शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु *'भज्'* से हुई है, जिसका अर्थ होता है — *सेवा करना, प्रेम करना, भाग लेना*।
भक्ति में न कोई जटिलता है, न तर्क-वितर्क — केवल प्रेम है, आस्था है, समर्पण है।
जहाँ बुद्धि चूक जाती है, वहाँ भक्ति जीवन को बाँध लेती है
स त्वस्मिन परमप्रेमरूपा।
(भक्ति परम प्रेम का रूप है।)
भक्ति अर्थात् राष्ट्र -भक्ति
यह भक्ति विश्व भक्ति तक जाती है तभी हम कहते हैं वसुधैव कुटुम्बकम्
भारत राष्ट्र जिसकी आर्ष परम्परा,जीवन शैली जिसका जीवनदर्शन तात्त्विक स्वरूप संपूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी और सृष्टि का आधार है
यही हमारा आनन्दमय पक्ष है और हमारी यह परम्परा अद्भुत है और हमारे ऋषियों का उद्देश्य यही रहा है कि हजारों वर्ष बीत जाएं किन्तु हम अपनी इस अद्भुत अप्रतिम परम्परा को भूलें नहीं १९२५ में अस्तित्व में आए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसकी अनेक धाराएं उपधाराएं हो गई हैं का भी यही उद्देश्य है
वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।।
कल का कार्यक्रम मेलापक कैसे था,प्रेम की प्रत्यक्ष गरमाहट किस कारण दिखाई नहीं देती, मैं नहीं हम क्या है, जागरण की किस कटिंग का उल्लेख आचार्य जी ने किया जिसमें आचार्य जी की फोटो छपी थी जानने के लिए सुनें