7.4.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का चैत्र शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 7 अप्रैल 2025 का सदाचार सम्प्रेषण *१३४८ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष  दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 7 अप्रैल 2025 का  सदाचार सम्प्रेषण 

  *१३४८ वां* सार -संक्षेप

आचार्य जी नित्य प्रयास करते हैं कि हम इन सदाचार संप्रेषणों को सुनकर और गुनकर इनके सदाचारमय विचार जैसे आत्मस्थता उत्साह कर्मशीलता राष्ट्र -भक्ति आदि ग्रहण करें ताकि हमारी इन्द्रियां जो हमारे अधीन हैं सात्विकता में प्रवेश कर पाएं जब इन्द्रियाँ सात्विकता में प्रवेश करती हैं, तो व्यक्ति का मन और आत्मा शुद्ध होते हैं। इससे व्यक्ति को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और वह अपने जीवन के उच्चतम उद्देश्य को समझने में सक्षम होता है, व्यक्ति अपनी आंतरिक शांति को अनुभव करता है इन्द्रियाँ जब सात्विकता में होती हैं, तो वे बाहरी आकर्षणों और भोगों से विचलित नहीं होतीं। इससे मन में शांति बनी रहती है और मानसिक तनाव, चिंता, और द्वंद्व दूर होते हैं और जब हम इन्द्रियों के अधीन हो जाते हैं तो नकारात्मकता आती है जिससे संकट उपस्थित हो जाता है  समस्या खड़ी हो जाती है 

अतः प्रयास करें कि हमारी इन्द्रियां सात्विकता की ओर उन्मुख रहें यद्यपि ब्रह्मा द्वारा रची इस सृष्टि में गुण अवगुण दोनों ही हैं किन्तु हमें गुणों को अपनाना है 

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥

कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥2॥

भले-बुरे सभी ब्रह्मा के  द्वारा ही पैदा किए हुए हैं किन्तु गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से भरी हुई है


दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥

दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥

माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥

कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥

सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥


दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष,जीवन-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा नदी -कर्मनाशा नदी , मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य आदि  ब्रह्मा की सृष्टि में हैं वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है

विधाता जब हंस जैसा विवेक देता है तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है।यद्यपि काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग  भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं

हम संसार को संसार की दृष्टि से देखें अपने को अपनी दृष्टि से देखें आत्मदृष्टि विकसित करें जिसके लिए आत्मचिन्तन आवश्यक है 

भ्रमित होने से बचने के लिए हमें अपनी भाषा अपने भाव अपने विचार अपने ग्रंथों आदि को अच्छी तरह से जानना आवश्यक है 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया समीर राय जी भैया पंकज जी भैया प्रदीप जी का नाम क्यों लिया क्या विद्याभारती युगभारती से तालमेल चाहती है कल किसका उद्घाटन हुआ ११ अप्रैल को कौन सा कार्यक्रम है जानने के लिए सुनें