8.4.25

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 8 अप्रैल 2025 का सदाचार सम्प्रेषण *१३४९ वां* सार -संक्षेप

 समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥

नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष  एकादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 8 अप्रैल 2025 का  सदाचार सम्प्रेषण 

  *१३४९ वां* सार -संक्षेप



निस्सीम भावनाओं के शिक्षक के रूप में आचार्य जी नित्य हमें प्रेरित करते हैं 

ताकि हमारा कल्याण हो इन वेलाओं के सदाचारमय विचार ग्रहण कर हमारा नित्य परिमार्जन होता रहे हम स्वयं जाग्रत हों और हमारे अन्दर वह क्षमता आए कि हमारे माध्यम से हमारे अपने भी जाग्रत हों 


*भाव-जगत् अद्भुत है* हम  इसका आनन्द लेने का अभ्यास करें भाव और बुद्धि के बीच का संतुलन एक महत्वपूर्ण विषय है, जो हमारी मानसिक स्थिति और जीवन के दृष्टिकोण को प्रभावित करता है।यह हमारे भीतर का एक अत्यंत सूक्ष्म और शक्तिशाली पहलू है, जो हमारे विचारों, इच्छाओं, और संवेदनाओं से संयुत है। भाव-जगत् हमें जीवन के गहरे अनुभवों से जोड़ता है उदाहरण के लिए प्रेम, करुणा, शांति, भय, आक्रोश, और आनंद। यह हमारे जीवन को रंगों और अर्थों से भर देता है, और हम अपनी संवेदनाओं के माध्यम से संसार को अनुभव करते हैं। 

भाव निराकार होते हुए भी हमारे जीवन में एक वास्तविक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। जब कोई व्यक्ति भावनाओं के स्तर पर उचित रीति से संयुत होता है, तो वह जीवन के प्रत्येक पहलू को गहराई से अनुभव कर सकता है। 


बुद्धि है जीवन को समझने और निर्णय लेने की क्षमता, किन्तु जब यह भावनाओं पर हावी हो जाती है, तो यह हमारे जीवन को यांत्रिक और स्वचालित बना सकती है। अत्यधिक बुद्धि और तार्किकता भावनाओं को दबा सकती है और हम संवेदनाओं और अनुभवों से विरत हो सकते हैं। संसार का स्वरूप विकृत तब हो जाता है जब हम भाव से निकलकर बुद्धि में आते हैं 

अतः प्रयास करें कि हम भावना -शून्य संवेदना -शून्य न हों क्योंकि जिस संसार में हम रह रहे हैं वह हमसे सहारा चाहता है जब हम एकांगी होकर संसार से भागकर भक्ति करने लगते हैं तो हनुमान जी हमें दंडित करते हैं हमें संसार का ध्यान रखते हुए भक्ति करनी है यही शौर्य प्रमंडित अध्यात्म है हमारा अपना कर्तव्य है


 मनुष्य एक यन्त्र है। 

परम पिता जनित सपूत तत्वतः स्वतंत्र है 

मनुष्य कर्म तंत्र है।


अपने परिवार के प्रति अपने राष्ट्र के प्रति भाव के अर्णव को शुष्क न होने दें 

मनुष्य कर्म का सितार तार तार में रमा 

मनस् प्रशान्त भाव में विमुग्ध सी रमी प्रमा 

जगा जगत कि अंगुली सितार पर फिसल गई 

विभाव तिलमिला गया कि चीख सी निकल गई।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने निर्भरा भक्ति का क्या महत्त्व बताया गुलाबराय का उल्लेख क्यों हुआ भैया डा संतोष जी और भैया पंकज जी क्यों चर्चा में आए जानने के लिए सुनें