ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज वैसाख शुक्ल पक्ष चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 1 मई 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१३७२ वां* सार -संक्षेप
*संसार (जगत्)* एक अद्भुत रंगमंच है जहाँ समय-समय पर अनेक अनुभव—सफलता-असफलता, सुख-दुःख, लाभ-हानि—मानव जीवन को शिक्षित और परिपक्व करते हैं
सब कुछ क्षणिक है—सुख भी, दुःख भी। यह बोध ही वैराग्य की ओर ले जाता है जब मनुष्य लाभ-हानि, जय-पराजय के बीच समता का अभ्यास करता है, तभी वह आत्मस्थ होता है।
संसार हमें केवल परिस्थितियाँ देता है, लेकिन विवेक और निर्णय हम स्वयं करते हैं—यहीं से *जीवन दर्शन* का निर्माण होता है।
*संसार एक विद्यालय है*, जहाँ हर अनुभव—चाहे वह मधुर हो या कटु—हमें कुछ सिखा देता है। जो इस अद्भुतता को समझता है, वही असली जीवनद्रष्टा बनता है विकारों को दूर करते हुए हमें सद्विचारों को ग्रहण कर संसार की इस अद्भुतता का आनन्द लेना चाहिए
वर्तमान में भारत की सीमाओं पर जो स्थिति उत्पन्न हो रही है, वह न केवल सामरिक दृष्टिकोण से, अपितु राष्ट्रीय एकता और नागरिक कर्तव्यों की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
वर्तमान परिस्थितियाँ हमें यह सिखाती हैं कि राष्ट्र की सुरक्षा और समृद्धि केवल सीमाओं पर लड़ने वाले सैनिकों का ही कर्तव्य नहीं है, अपितु प्रत्येक राष्ट्र भक्त का भी कर्तव्य है। हमें देशद्रोहियों से सतर्क रहकर, देशभक्ति की भावना के साथ, अपने अपने क्षेत्रों में योगदान देना चाहिए।
आ रही है आज चारों ओर से यही पुकार ।
हम करेंगे त्याग मातृभूमि के लिए अपार ।
हमें संगठित रहने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इस समय संगठन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ताकि समस्या आए तो उसे हम मिलकर आसानी से सुलझा सकें
संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो ।
भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किए चलो ॥
सामान्य व्यक्ति की चाह और ईश्वर की चाह में क्या अन्तर है भैया अभय महाजन जी का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें