प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 21 मई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१३९२ वां सार -संक्षेप
आचार्य जी नित्य प्रयास करते हैं कि हमारे अन्दर भरपूर मात्रा में विद्वत्ता आए हम शक्ति संपन्न बनें राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित बनें
को वा गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा शिष्यस्तु को यो गुरु भक्त एव ।
शिक्षा, ज्ञान, तत्त्व आदि अनेक क्षेत्रों में यह संसार गुरुशिष्यमय है जब गुरु शिष्य एकाकार हो जाते हैं तो अपार शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ऐसे ही एक गुरुशिष्य का उदाहरण है श्रीरामानुजाचार्य और कूरेश स्वामी का
श्रीवत्सांक मिश्र, जिन्हें कूरेश स्वामी या कूरेशाचार्य (तमिल में कूर्त्त आल्वान्) के नाम से भी जाना जाता है, श्रीरामानुजाचार्य के परम शिष्य अनन्य सेवक सहकर्मी और श्रीवैष्णव परंपरा के एक महान् आचार्य थे। उनका जीवन त्याग, भक्ति और गुरु-सेवा का अद्वितीय उदाहरण है। ये व्याकरण साहित्य और दर्शन के पूर्ण ज्ञाता थे
श्रीरामानुजाचार्य ने वेदांत सूत्रों पर एक प्रामाणिक वैष्णव भाष्य लिखने का संकल्प लिया था, जिसे श्रीभाष्य के नाम से जाना जाता है। इसके लिए उन्होंने बोधायन वृत्ति का अध्ययन करना आवश्यक समझा, जो उस समय केवल कश्मीर के शारदा पीठ के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध थी।
रामानुजाचार्य और कूरेश स्वामी ने कश्मीर की कठिन यात्रा की और वहां के राजा से संपर्क किया। राजा ने उन्हें पुस्तकालय में प्रवेश की अनुमति दी, लेकिन स्थानीय पंडितों ने कई प्रतिबंध लगाए:
- पुस्तक को बाहर ले जाने की अनुमति नहीं थी।
- पुस्तक का कोई भी अंश लिखने या नोट्स लेने की अनुमति नहीं थी।
इन कठिनाइयों से बिना विचलित हुए कूरेश स्वामी ने अपनी अद्वितीय स्मरण शक्ति का उपयोग करते हुए पूरी बोधायन वृत्ति को कंठस्थ कर लिया। कश्मीर से लौटने के बाद, उन्होंने इस स्मृति के आधार पर श्रीरामानुजाचार्य को श्रीभाष्य की रचना में सहायता प्रदान की। इस प्रकार, कूरेश स्वामी का योगदान श्रीभाष्य की रचना में अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अखिल जी श्री आनन्द आचार्य जी,भैया पंकज श्रीवास्तव जी, भैया मनीष कृष्णा जी की माता जी, भैया पुनीत जी, भैया मलय जी की चर्चा क्यों की, कल्हण का उल्लेख क्यों हुआ सितम्बर में होने वाले अधिवेशन के विषय में आचार्य जी ने क्या परामर्श दिया जानने के लिए सुनें