योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 22 मई 2025 का मार्गदर्शन
१३९३ वां सार -संक्षेप
सारा संसार प्रकृति से उत्पन्न होता है, जो त्रिगुणात्मक है। प्रकृति जड़ (अचेतन) होती है, जबकि पुरुष चेतन, निराकार और स्वतंत्र है। जब पुरुष प्रकृति के साथ संयोग करता है, तब संसार का अनुभव होता है।
जीव प्रकृति के नियमों के अधीन होता है। उसकी क्रियाएं स्वाभाविक और अनैच्छिक होती हैं जब कि मनुष्य चेतन, विवेकशील और आत्मज्ञानी होता है। वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी होता है और स्वनियंत्रण की क्षमता रखता है।
मनुष्य, यदि आत्मज्ञान प्राप्त करे, तो वह प्रकृति के बंधनों से मुक्त होकर स्वनियंत्रित हो सकता है। यह मुक्ति ही जीवन का परम उद्देश्य है। कहने का तात्पर्य है परमात्मा ने मनुष्य को कुछ अर्थों में स्वतन्त्र छोड़ा जिसने इस स्वातन्त्र्य का सदुपयोग कर लिया वह सत्पुरुष बन गया और जिसने इसका दुरुपयोग किया वह निन्दा का पात्र हो गया
विकारों में रुचि और सदाचार में अनिच्छा अपने पुरुषत्व का विस्मरण है हमारे हित के लिए सत्पुरुषों के गुणों को हमारे हितैषी पूर्वपुरुषों ने संगृहीत कर दिया जिससे हमारी प्रशंसा हो तो वह हितकर है हमें सुख मिल रहा है आनन्द की अनुभूति हो रही है तो वह हमारे लिए हितकर है प्रातः काल जल्दी जागना एक सद्गुण है इसे अपनाएं
हम विकारों को दूर करें विचारों को ग्रहण करें जो अच्छा विचार आए उसे लिख लें ऐसे विचारों का व्यवस्थित संग्रह करें
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पंकज सिंह जी की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें