प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 29 मई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४०० वां सार -संक्षेप
यह संसार जो केवल नाम (वर्णन) और रूप (आकार) से बना है, वास्तव में माया का उत्पाद है। यह परिवर्तित होता रहता है, नश्वर है,इसी में हम प्रायः अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं।
हम केवल शरीर, नाम, रूप या विचार नहीं हैं, बल्कि चैतन्य स्वरूप आत्मा हैं जो शुद्ध, निराकार, अविनाशी और साक्षीभाव में स्थित है।
जब हम स्वयं को नाम-रूप से परे जान लेते हैं, तभी मोक्ष, शांति और अखंड आनंद की प्राप्ति होती है
आत्मा के साक्षात्कार से ही वास्तविक शांति व पूर्णता प्राप्त होती है। यही आत्म, विस्तार पाकर परमात्म हो जाता है आत्मा सीमित होने पर 'जीव' कहलाती है, और वही आत्मा जब अपने अज्ञान को पार कर ब्रह्म के साथ एकता स्थापित कर लेता है, तो वही परमात्म बन जाता है। यही है:
अहं ब्रह्मास्मि
सोऽहम्
कहने का तात्पर्य है कि
संसार में रहकर संसार से असंपृक्त रहना कठिन काम है किन्तु हम यदि यह अनुभव करें कि नाम रूपात्मक जगत के अतिरिक्त भी हम कुछ हैं तो यह श्रेयस्कर है हमें अपने आत्म को पहचानने की आवश्यकता है यही आत्म विस्तार पाकर परमात्म हो जाता है
परमात्मा अत्यन्त रहस्यमय है जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। लौकिक सिद्धियों के चाहनेवाले अर्थार्थी साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमा आदि सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
यह चौपाई बाल कांड से है इसका प्रारम्भ अत्यन्त तत्त्वमय है तुलसीदास जी के मन में निश्चित रूप से उस समय की परिस्थितियां कौंध रही होंगी
उस काल में शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच वैचारिक मतभेद और टकराव व्याप्त थे। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में भगवान राम के द्वारा शिवलिंग की स्थापना (रामेश्वरम में) का वर्णन कर शैव और वैष्णव परंपराओं में समरसता स्थापित करने का प्रयास किया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने संस्कृत के स्थान पर अवधी भाषा में ग्रंथ की रचना कर आम जनता को धार्मिक ग्रंथों से जोड़ने का कार्य किया। इससे उन्हें तत्कालीन संस्कृत विद्वानों की आलोचना का सामना भी करना पड़ा, जिन्होंने इसे धार्मिक परंपरा के विरुद्ध माना। उस समय दुष्ट मुगल सम्राट अकबर का शासन था रामचरितमानस ने न केवल धार्मिक भावना को प्रबल किया, बल्कि यह सामाजिक सुधार और जनजागरण का भी माध्यम बना। इस ग्रंथ ने रामलीला जैसी परंपराओं को जन्म दिया, जिससे समाज में नैतिक मूल्यों, आत्मविश्वास और सांस्कृतिक एकता की भावना का संचार हुआ।
बाल कांड का प्रारम्भ मां सरस्वती और भगवान् गणेश की वन्दना से है
इसी में आगे आता है
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
समझने में नाम और नामी दोनों एक-से हैं, किंतु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु राम अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं; ये भगवान के नाम और रूप दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और पावन बुद्धि से ही इनका स्वरूप जानने में आता है।
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