प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष षष्टी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 1 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४०३ वां सार -संक्षेप
श्री रामचरितमानस केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, अपितु एक मानवजीवन-उद्धारक मार्गदर्शिका है।
राम की कथा संसार की व्यथाओं को निर्मूल करने का आधार है
यह कथा मर्यादा, धर्म, कर्तव्य, त्याग और आदर्श का ऐसा संपूर्ण चित्रण है, जो मनुष्य को हर प्रकार की मानसिक, नैतिक और सामाजिक व्यथाओं से उबारने में सक्षम है।
रामकथा में मनुष्य के जीवन के हर पहलू — संघर्ष, प्रेम, भ्रातृत्व, शत्रुता, वनवास, राजधर्म का समाधान है।
इस कारण राम की कथा को सुनना, मनन करना और जीवन में उतारना — दुःखों से मुक्ति और आत्म-शांति का उपाय है कथा को सुनते समय हमें भावुक अवश्य होना चाहिए
मानस में चार वक्ता और चार श्रोता हैं
पहले वक्ता भगवान् शिव और श्रोता माता पार्वती हैं
दूसरे वक्ता कागभुशुंडी और श्रोता पक्षीराज गरूड़ हैं
एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥
तीसरे वक्ता याज्ञवल्क्य (जागबलिक) और श्रोता भारद्वाज मुनि हैं याज्ञवल्क्य ऋषि जो मूलतः शिव की नगरी काशी में रहते हैं यह कथा यज्ञों की नगरी प्रयाग में सुना रहे हैं
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ll
तब छह मुख वाले पुत्र कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में इनके जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत् उन्हें जानता है।
उस समय भी असुर थे उनको मारने का सांसारिक विधान उस समय भी था
हम लोगों के साथ आज यही स्थिति है
हम सनातन धर्म को मानने वाले भी असुरों का संकट देख रहे हैं
चौथे वक्ता तुलसीदास और हम सब श्रोता हैं
श्री रामचरितमानस की रचना के समय धार्मिक सम्प्रदायों में अलगाव बढ़ रहा था। मुगल शासन के तहत हिंदू समाज असुरक्षा और विघटन की स्थिति में था। शैव-वैष्णव परस्पर वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा में लगे थे
शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच वैचारिक मतभेद था उनमें कहीं-कहीं कटु संघर्ष भी देखा जाता था।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के माध्यम से न केवल रामभक्ति को सुदृढ़ किया, बल्कि शिव और राम की एकता को भी प्रकट किया।
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
शिव के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे राम को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।
तुलसीदास जी ने राम और शिव को अभिन्न बताते हुए साम्प्रदायिक समन्वय की स्थापना की और उस युग की धार्मिक उथल-पुथल में भक्ति को स्थिर आधार बनाया।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि भैया मोहन जी को पथरी हो गई है और भैया मनीष जी को भी कष्ट है
आचार्य जी ने श्रद्धेय अशोक सिंघल जी की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें