प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण पंचमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 16 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४१८ वां सार -संक्षेप
जब हमारे अंतर्मन के भाव लेखनी के माध्यम से पृष्ठों पर उतरते हैं, तब अपने ही लेखन को देखकर एक अनुपम आत्मसंतोष एवं गहन आनन्द की अनुभूति होती है। यह अनुभव आत्मदर्शन का ही एक रूप है। आत्मदर्शन, अध्यात्म के द्वार खोलता है। हम जितना अधिक अध्यात्म में प्रविष्ट होते हैं, उतना ही हमारा जीवन अधिक सार्थक, शांत और कल्याणकारी बनता है।
किन्तु अध्यात्म शौर्य से प्रमंडित होना चाहिए आज भी इसकी आवश्यकता है
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने कल सम्पन्न हुई बैठक की चर्चा की जिसमें प्रेम आत्मीयता से खिंचकर युगभारती के २१ सदस्य उपस्थित हुए
साकल्य की किस कविता का उल्लेख हुआ पुरुषार्थ का प्रतिबिम्ब क्या है
भैया विवेक भागवत भैया शरद भैया प्रतीप दुबे आदि की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें