22.6.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण एकादशी/द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 22 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण १४२४ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण एकादशी/द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  22 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४२४ वां सार -संक्षेप


यह सदाचार-संप्रेषण हमारे भीतर स्थित भावतत्त्व की सुप्त चेतना को जाग्रत करने का उपाय है। साथ ही, यह संसार में लिप्तता को न्यून करने का उपचार भी है।  


जब हमारे भीतर भाव की सात्त्विक जागृति होती है, तब जीवन में एक अद्भुत पूर्णता प्रकट होती है।  

वास्तव में, यही भक्ति का आधार है l

भावना नहीं है तो भक्ति नहीं है

भावना के कारण भक्त को अपने इष्ट प्रिय लगते हैं जब कि सांसारिक मनुष्य अपनी वासनाओं और लोभ के पीछे मोहग्रस्त होकर पड़ा रहता है

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥130 ख॥



प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥

मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥4॥


सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है, परन्तु पिछली बात नहीं रहती (अर्थात्‌ मातृ परायण शिशु की तरह फिर उसको बचाने की चिंता नहीं करती, क्योंकि वह माता पर निर्भर न कर अपनी रक्षा अपने आप करने लगता है)। ज्ञानी मेरे प्रौढ़ (सयाने) पुत्र के समान है और (तुम्हारे जैसा) अपने बल का मान न करने वाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है॥4॥



भक्त शिशु की तरह होता है जैसे शिशु के लिए मां वैसे ही भक्त के लिए अपने इष्ट

वेद तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस्) से युक्त विषयों को बताते हैं


ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥


 किन्तु भक्त का स्वभाव है कि वह त्रिगुणातीत रहे  कुछ भक्त ऐसे होते हैं जिनमें यह भाव स्थायी रूप से टिक जाता है जैसे कबीर तुलसीदास वाल्मीकि महाराणा प्रताप शिवाजी महाराज

हम इसी भाव को कुछ क्षणों के लिए अनुभव करके आनन्द प्राप्त कर सकते हैं बस हमें नाट्यमंच पर उस रूप को धारण करना है वीर, लेखक, कवि,शिक्षक, समाजसेवी आदि का रूप

इसके अतिरिक्त आचर्य जी ने क्रोध और मन्यु में अन्तर बताया

और  त्रिविष्णु के बारे में बताया जिनके लिए कहा जाता है कि वे सृष्टि, पालन और संहार की लीला में अलग-अलग स्तरों पर कार्य करते हैं। ये हैं:


1. कर्णोदकशायी विष्णु  अर्थात् महाविष्णु

- यह भगवान विष्णु का सबसे व्यापक रूप है।  

- ब्रह्माण्डों की सृष्टि से पूर्व यह कारण सागर (कर्णोदक) में शेषनाग पर शयन करते हैं।  

- उनके निःश्वास से असंख्य ब्रह्माण्ड उत्पन्न होते हैं।  

- इन्हीं के शरीर से अनंत ब्रह्माण्ड निकलते हैं — सृष्टि का कारण।


2. गर्भोदकशायी विष्णु 

- यह प्रत्येक ब्रह्माण्ड के भीतर गर्भोदक (ब्रह्माण्डीय जल) में स्थित रहते हैं।  

- इसी रूप से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है — नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट होते हैं।  

- ये विष्णु ब्रह्माण्ड के संचालन में संलग्न रहते हैं।


3. क्षीरोदकशायी विष्णु  

- ये क्षीरसागर (क्षीरोद) में शयन करते हैं।  

- यही भगवान विष्णु क्षीरसागर में देवताओं के आह्वान पर प्रकट होते हैं l  

- इन्हीं से दशावतार (राम, कृष्ण, नरसिंह आदि) अवतरित होते हैं।  

- ये सबके हृदय में परमात्मा के रूप में अंतःस्थ भी रहते हैं — अन्तर्यामी

आचार्य जी ने भैया मोहन जी, भैया राघवेन्द्र जी का नाम क्यों लिया, स्त्री क्या है जानने के लिए सुनें