प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण अमावस्या विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 25 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४२७ वां सार -संक्षेप
यद्यपि हमारा ऋषि एकान्त में स्थित होकर विचार, चिन्तन, मनन करता है, तथापि उसकी दृष्टि केवल आत्मकल्याण तक सीमित नहीं होती वह भविष्यद्रष्टा होता है। उसे अपने परिवेश का भान रहता है और उसका परिवेश है — भारत।
आज भी हम आश्वस्त हैं कि सुदूर हिमालय की कन्दराओं में ऋषि-मण्डल तप, ध्यान, धारणा और संकल्प में प्रवृत्त है और वही दिव्य चिन्तन भारत की सुरक्षा का मौन आधार है। हम ऐसा विश्वास तो करते हैं किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम कर्महीन होकर बैठ जाएं
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
संसार जिसमें आनन्द और व्यथा दोनों है में सामञ्जस्य बैठाना,संसार के साथ चलना और संसार को समझना मनुष्य के ही वश का है हम मनुष्य हैं किन्तु हमें मनुष्यत्व की अनुभूति होनी चाहिए
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
हमारा राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में जो कर्तव्य है उसकी अनुभूति करें
आचार्य जी हमें लेखन के लिए प्रेरित करते रहते हैं हमारे अन्दर जो भाव हैं उन्हें हम बाहर निकालें और उन्हें अक्षरों में बांधें निश्चित रूप से हमें शक्ति की अनुभूति होगी
आचार्य जी के निम्नांकित भाव देखकर हम प्रेरणा ले सकते हैं
क्यों आज आदि कवि के मन पर रह रह तमसा-तट उभर रहा
क्यों पुनः क्रौंची के नयनों का नीर हृदय में उतर रहा
क्यों आज अकारण दीप-ज्योति यह मचल मचल कर जलती है ।
क्यों मन्त्र टूटते-जुड़ते हैं जपमाला रुक-रुक चलती है
क्यों आज अवघपति के सिंहासन पर बरबस खिंच रहा ध्यान ॥ ९ ॥
भारत महान् भारत महान् ....
हो समाधिस्थ ऋषि ने देखा हो गयी अयोध्या फिर विरूप
अब राम नाम भर बचा तिरोहित होता जाता है स्वरूप
पगचाप सुनाई देते हैं पर नहीं शिंजिनी के स्वर हैं
श्री सीताराम नहीं अब केवल राम राम अखिलेश्वर हैं
हे आदिशक्ति हे परमेश्वर हे जग रचना के रूप - नाम ॥ १० ॥
भारत महान् भारत महान्...
इसके अतिरिक्त कल कौन सा कार्यक्रम है
धूपड़ जी ने जाला देखकर क्या कहा ?जानने के लिए सुनें