प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 28 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४३० वां सार -संक्षेप
आचार्यजी नित्य प्रयास करते हैं कि हम लोक दृष्टि के साथ दिव्य दृष्टि की गहनता को समझें
दिव्य दृष्टि है
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15.15।।
भगवान् कृष्ण कहते हैं
मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य वस्तु हूँ तथा वेदान्त का, वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
रावण की भोगदृष्टि अर्थात् लोक दृष्टि और उसकी सत्ता की रक्षा के लिए ऋषियों पर किए गए अत्याचारों का वर्णन अनेक ग्रंथों में विस्तार से मिलता है। रावण जानता था कि यदि ऋषि यज्ञ, तप, ध्यान, धारणा और साधना में लीन रहेंगे, तो वे ऐसी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर सकते हैं जो उसकी राक्षसी सत्ता के लिए हानिकारक हो सकती है।रावण के हस्तक जैसे खर, दूषण, त्रिशिरा आदि ऋषियों के आश्रमों पर आक्रमण करते थे, उन्हें यज्ञ करने से रोकते थे और उनका वध करते थे। ऋषियों ने श्रीराम से प्रार्थना की:
एहि पश्य शरीराणि मुनीनां भावितात्मनाम्। हतानां राक्षसैः घोरैः बहूनां बहुधा वने॥
वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड
यह स्पष्ट करता है कि रावण की नीति थी कि ऋषियों को भयभीत कर उनके तप, ध्यान और यज्ञ को बाधित किया जाए, जिससे वे आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त न कर सकें
रावण की दृष्टि भोगप्रधान थी। उसका उद्देश्य था कि संसार में केवल उसकी सत्ता और भोग की संस्कृति बनी रहे। वह नहीं चाहता था कि कोई भी व्यक्ति तप, ध्यान या यज्ञ के माध्यम से आत्मिक उन्नति करे। इसलिए वह ऋषियों के आश्रमों को नष्ट करता, यज्ञों को विध्वंस करता और तपस्वियों को मारता था।
रावण की भोगदृष्टि और ऋषियों पर अत्याचार उसके पतन का कारण बने। उसने जो भय और आतंक का वातावरण बनाया, वह अंततः धर्म और सत्य के समक्ष टिक नहीं सका। श्रीराम ने रावण के इस अधर्म का अंत कर धर्म की पुनः स्थापना की।
आइये प्रवेश करें अरण्य कांड में
भगवान् राम सिद्धि के बिना वापस नहीं लौटना चाहते थे यद्यपि भरत जी महाराज तो प्रयास कर ही रहे थे वह परमात्म शक्ति तो एक सिद्धि के लिए आई थी
यदा यदा हि धर्मस्य.....
मां अनुसूया से मां सीता को दिव्य वसन प्राप्त हो गए हैं भगवान् राम शरभंग के आश्रम में पहुंचते हैं
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥4॥
शरभंग कहते हैं मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है इस प्रकार (दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर) चिता रचकर मुनि शरभंगजी हृदय से सब आसक्ति छोड़कर उस पर जा बैठे शरभंग ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और राम की कृपा से वे बैकुंठ को चले गए। मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्ति का वर ले लिया था।
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
इसे देखकर रामत्व बोलता है
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥
ऐसी अद्भुत है राम कथा
यही हमारे जीवन से संयुत है हम इसकी अनुभूति करें राष्ट्र के जाग्रत पुरोहित के रूप में अपने कर्तव्य को जानें भ्रमित न हों
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने १०० के लक्ष्य के बारे में क्या बताया श्री कृष्णगोपाल जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें