तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 4 जून 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४०६ वां सार -संक्षेप
जो व्यक्ति सूक्ष्म (आध्यात्मिक, अव्यक्त) और स्थूल (भौतिक, दृश्य) जगत् के रहस्यों को समझ लेते हैं, वे जीवन की वास्तविकताओं को गहराई से पहचान जाते हैं। उन्हें यह पता रहता है कि क्या नश्वर है और क्या शाश्वत, क्या मेरे वश में है और क्या नहीं और जीवन का उद्देश्य क्या है।इसलिए वे मोह, भय और भ्रम से मुक्त होकर निश्चिन्त और शांतिपूर्वक जीवन जीते हैं
इन सदाचार वेलाओं के माध्यम से यही बताने का प्रयास आचार्य जी करते हैं
हमारे यहां तीन प्रकार के तप बतलाए गए हैं
शरीर संबन्धी मन संबन्धी और वाणी संबन्धी
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।
जो वाक्य उद्वेग न उत्पन्न करने वाला अर्थात् ऐसा वचन जो दूसरों को उद्विग्न,आहत न करे क्षुब्ध न करे,
सत्य, प्रिय और हितकारी हो
(सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: ॥)
तथा जो नियमित रूप से स्वाध्याय और अभ्यास से युक्त हो — वह वाणी का तप कहा गया है।
देव, ब्राह्मण अर्थात् संसार के सारे कार्यों को एक किनारे कर ब्रह्म की उपासना में जो रत रहता है,गुरु और परा विद्या को जानने वाले ज्ञानी जनों का पूजन,शुचिता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा अर्थात् किसी को कष्ट न पहुंचाना, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।।
मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है।।
यह जीवन भी तपस्या है तपस्या अर्थात् हमें आनन्द मिले और दूसरे को सुख मिले
जनि आचरज करहु मन माहीँ। सुत तप तेँ दुर्लभ कछु नाहीँ॥
तप बल तेँ जग सूजइ विधाता। तप बल बिष्नु भये परित्राता ॥१॥
तप बल सम्भु करहिँ सङ्घारा। तप तेँ अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहइ सो लागा ॥२॥
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने धैर्य को सुस्पष्ट किया
हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिए कौन से दो ग्रंथ पढ़ें
आचार्य जी आज कहां जा रहे हैं जानने के लिए सुनें