तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2॥
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा (आषाढ़ी पूर्णिमा/गुरु पूर्णिमा/व्यास पूर्णिमा) विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 10 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४४२ वां सार -संक्षेप
बिनु गुर होइ कि ग्यान, ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥
आज गुरु के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करने का विशेष सुअवसर है। इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों का संकलन और महाभारत की रचना की। उन्हें आदिगुरु माना जाता है।
व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्"
जिसका अर्थ है कि "सारा संसार महर्षि वेद व्यास की रचनाओं का उच्छिष्ट (जूठन) है"।
भारतीय परंपरा में गुरु को वह स्थान प्राप्त है जो जीवन को दिशा देता है, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु हमारे ऊपर सद्गुणों का आरोपण करता रहता है और वह भी बिना स्वार्थ के
यह दिन आत्मचिंतन, स्वाध्याय और गुरुचरणों में बैठकर अपने जीवन को सुधारने का स्मरण कराता है। गुरु पूर्णिमा केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि साधना, समर्पण और शिक्षाप्रद संबंध की पुनर्स्थापना का पर्व है। गुरु शिष्य परम्परा वाले अपने सनातन धर्म में गुरुत्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है तो आइये गुरुभाव में रहते हुए श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रवेश करें आज की वेला में
रामचरितमानस में एक प्रसंग आता है जब मेघनाद ने युद्ध में भगवान् राम और लक्ष्मण पर नागपाश का प्रयोग किया। इससे दोनों भाई सर्पों के बंधन में बंध गए। यह देखकर देवता, ऋषि और वानर सेना अत्यंत चिंतित हो उठी।
इस स्थिति में गरुड़जी वहाँ प्रकट हुए और अपने प्रभाव से नागपाश को नष्ट कर दिया, जिससे श्रीराम और लक्ष्मण मुक्त हो गए। इस घटना से गरुड़जी को मोह हो गया कि ये भगवान् का अवतार नहीं हैं भयातुर होकर गरुड़जी इधर उधर मारे मारे घूमने लगे तब शिव जी ने उन्हें काकभुशुण्डि के पास भेजा
काकभुशुण्डि जी ने गरुड़जी को श्रीराम की लीलाओं और उनके दिव्य स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने बताया कि भगवान की लीलाएं सामान्य बुद्धि से परे हैं और वे अपने भक्तों के कल्याण हेतु विविध रूपों में प्रकट होते हैं।
गरुड़जी ने काकभुशुण्डि जी की कथा सुनकर अपने संदेह का निवारण किया और श्रीराम के चरणों में उनकी भक्ति और श्रद्धा और भी दृढ़ हो गई। उन्होंने स्वीकारा कि भगवान की लीलाएं अचिंत्य हैं और उन्हें समझने के लिए भक्ति और समर्पण आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त किसने कहा रामचरित मानस शब्दावतार है
ज्ञान और भक्ति अलग अलग होने के बाद क्या हुआ
पशुत्व क्या है जीवन का आनन्द कैसे मिलेगा
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