प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 9 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४४१ वां सार -संक्षेप
जब किसी की भाषा उसके भीतर के भावों से संयोजित होती है, तो वह स्वाभाविक रूप से प्रभाव छोड़ती है। भावविहीन वाणी केवल ध्वनि रह जाती है उसमें वह स्पंदन नहीं होता जो दूसरों के हृदय को छू सके।
जो व्यक्ति भावपूर्ण होकर बोलता है, उसकी वाणी केवल कानों तक नहीं जाती वह तो हृदय तक पहुँचती है। और जब यही भाव व्यवहार में उतर आता है वाणी, आचरण और दृष्टि में झलकने लगता है तो व्यक्ति आकर्षक और प्रेरणास्पद बन जाता है।
प्रभावशाली बनने के लिए कोई दिखावा, कोई अभिनय आवश्यक नहीं होता। चर्चित होने और प्रभावशाली होने में अंतर है—चर्चा प्रयासों से हो सकती है, पर प्रभाव केवल सच्चे भावों से ही संभव होता है।
सहज भाव से किया गया कर्म ही वास्तव में श्रेष्ठ होता है। जब हम किसी कार्य को करते हुए उसमें पूरी तन्मयता, श्रद्धा और मन लगा देते हैं, तो वह कार्य साधना बन जाता है।
बिना मन के किया गया कार्य बोझ बनता है, जबकि मन लगाकर किया गया कार्य आनन्ददायक होता है और उसका परिणाम भी उत्कृष्ट होता है।
उदाहरण के लिए संत रविदास जो जूता सही करने वाला अपना कार्य मनोयोगपूर्वक करते थे वह प्रसिद्ध संत हो गए इसी प्रकार कबीर का उदाहरण है धन्ना सेठ हैं हमारे यहां संतों की एक लम्बी परम्परा है ऐसा अद्भुत है हमारा देश
और हम भ्रमित हो गए भययुक्त हो गए शासक भी ऊहापोह में रहे
भगवान् की कृपा है कि हम लोग अपने अपने कार्यों को करते हुए और बिना सरकार की ओर ध्यान दिए सामाजिक चिन्तन में रत हैं ऐसे में हमारे कुछ कर्तव्य हैं हम चिन्तन मनन ध्यान निदिध्यासन अध्ययन स्वाध्याय में रत हों कथाओं में मन लगाएं और भावी पीढ़ी को भी कथाओं को सुनने के लिए उत्साहित करें
जैसे राम- कथा जिसके सुनने से अनेक प्रकार के आध्यात्मिक, मानसिक और नैतिक लाभ प्राप्त होते हैं
श्रीराम का चरित्र सुनने से चित्त निर्मल होता है, और विकारों का नाश होता है यह कथा हमें आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देती है विषम परिस्थितियों में धैर्य रखने की शिक्षा देती है। हमारे भीतर सत्य, त्याग, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा जैसे गुण सहज रूप से विकसित होते हैं। इसके श्रवण से परिवार, समाज और राष्ट्र पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।हमारे तेजस में वृद्धि भी निश्चित है
पार्वती जी शिव जी से पूछ रही हैं
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) राम ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करनेवाले हैं।
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
यह कथा चिन्तन का एक विराट् क्षेत्र है हमारे भीतर भी कभी कभी क्षणमात्र के लिए रामत्व आता है किन्तु शीघ्र ही विलीन हो जाता है उसे स्थायित्व देने के लिए हमें अपने कार्य और व्यवहार में मन लगाना होगा समाजोन्मुखता के साथ
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने उत्तरी भारत की सन्त-परम्परा जो ' आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की साहित्यिक साधना की एक अनन्यतम प्रस्तुति है की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें