प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 16 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४४८ वां सार -संक्षेप
कल आचार्य जी ने बताया था
ज्ञान के वास्तविक तत्त्व और उस ज्ञान के प्रसारण की शैली को समझने के लिए मानस बालकांड के प्रारम्भ के दस ग्यारह दोहे और उनके बीच की चौपाइयां अवश्य देखें
अब आज की वेला में प्रवेश करते हैं
शिक्षा केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि वह जीवन के उच्चतर मूल्यों जैसे शान्ति, विवेक, आत्मोन्नति और समाजोपयोगिता के लिए होनी चाहिए।
मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ देखिए
शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी;
लो मूर्खते! जीती रहो, रक्षक तुम्हारे हैं धनी॥
शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी तक सीमित कर दिया गया है। ज्ञान की अपेक्षा चाटुकारिता और धनसंपन्नता को मूल्य मिला।
यदि शिक्षा जीवन में चरित्र, दृष्टिकोण और सेवा की भावना नहीं लाती, तो वह केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाती है
इस कारण शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक है
हमें अपने लिए ही उत्तम कोटि का सेवक बनना है अपने अस्तित्व को संसार की चमक धमक में विस्मृत नहीं करना है और तभी हम वास्तविक समाज सेवा कर सकते हैं
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं, "आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।" संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है।
भारतीय आर्ष परम्परा अद्भुत है अप्रतिम है जो उस दिव्य दृष्टि को प्रकट करती है जिसमें जीवन के प्रत्येक पक्ष को धर्म, ज्ञान, तप, सेवा और आत्मबोध से संयोजित किया गया है। यह परम्परा केवल रीति-रिवाज नहीं, बल्कि ऋषियों की अनुभूत और तपस्वियों की जानी हुई जीवन-पद्धति है।
यह परम्परा बताती है कि जीवन का उद्देश्य केवल भोग नहीं, मोक्ष है,ज्ञान का अर्थ केवल सूचना नहीं, आत्मसाक्षात्कार है धर्म केवल पूजा नहीं, आचरण की पवित्रता है
और राष्ट्र केवल भौगोलिक भूमि नहीं, एक सांस्कृतिक चेतना है अतः बिना भ्रमित हुए भयभीत हुए हमें उसे आत्मसात् करना चाहिए और अपनी संतानों को भी उससे परिचित कराना चाहिए
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया दिनेश भदौरिया जी का नाम क्यों लिया लखनऊ जैसा अधिवेशन कितने वर्षों में हो जानने के लिए सुनें