प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण कृष्ण एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 21 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४५३ वां सार -संक्षेप
हमारे ऋषियों को जो विशिष्ट वाणी, व्यवहार और चिन्तन की दृष्टि प्राप्त हुई , वह अद्भुत और कालातीत है। उन्होंने केवल ज्ञान ही नहीं अर्जित किया, बल्कि उस ज्ञान को जीवन में समाहित कर उसे जग के कल्याण हेतु उपयोगी बनाया ऋषित्व केवल एक पद नहीं, एक चेतना है जो सत्य की खोज में, तप और सेवा में नित्य संलग्न रहती है।
आचार्य जी का प्रयास यही है कि वही तत्त्व शक्ति विश्वास से भरी ऋषि-चेतना, वह ऋषित्व हमारे भीतर भी किसी न किसी रूप में प्रविष्ट हो और विकसित हो। वे नित्य हमें ऐसे सूत्रों से संयुत करते हैं जो आत्मबोध, कर्तव्यबोध और सदाचारमय पथ की ओर प्रेरित करते हैं। यह प्रयास केवल शास्त्रज्ञान का नहीं, अपितु आन्तरिक रूपांतरण का भी है जिससे हम, जो सार को विस्मृत किए रहते हैं और संसरण को अपनाए रहते हैं,भ्रमित रहते हैं,स्वयं को पहचानें और अपने समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी बनें।
इसी कारण हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है
राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
आचार्य जी कहते हैं हम प्रातःकाल प्रकृति के दर्शन करें जिसे स्रष्टा ने बनाया और हमने विकृत किया स्वार्थ के कारण इसी प्रकार की रचनाओं को विकृत करने वाले अनेक होते हैं
दैत्य यज्ञ, तप, साधना, ऋषि-मुनियों की चर्या आदि को बाधित कर देते थे l मानस में एक प्रसंग है
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
और उन्होंने ऐसा कर भी दिया किन्तु निसिचरत्व गया नहीं वह अब भी सुरक्षित है उसी के मार्जन का हम प्रयास करते हैं
जिसके लिए हम संगठित रहने का प्रयास करते हैं क्योंकि हम कलियुग में हैं
सङ्घे शक्ति: कलौयुगे
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने संगठन का भाव कैसे वर्णित किया भैया पुनीत जी का उल्लेख क्यों हुआ आचार्य जी आज कहां हैं जानने के लिए सुनें