टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 26 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४५८ वां सार -संक्षेप
आचार्य जी का कार्य केवल ज्ञान देना नहीं है, वे हमारे भीतर निहित शक्ति, बुद्धि, विचार, सत्त्व और तत्त्व को जाग्रत करते हैं। जो आवरण अज्ञान, आलस्य या भ्रम के कारण उन पर पड़ा रहता है, उसे वे प्रतिदिन अपने मार्गदर्शन से हटाने का प्रयास कर रहे हैं
यह प्रक्रिया केवल बौद्धिक नहीं, आत्मिक होती है जिससे व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है। इस प्रकार आचार्य जी हमें केवल शिक्षित नहीं करते, बल्कि हमारे भीतर के आत्मप्रकाश को प्रकट करने का कार्य करते हैं कि हम अपने आत्मदृश्य का अनुभव करें यही एक सच्चे गुरु का कार्य है।
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत"
तो आइये प्रवेश करें आज की वेला में
भारत का इतिहास खंगालें तो हम देखते हैं इस पर अनेक संकट आए हैं जैसे आक्रमण, विभाजन, प्राकृतिक विपदाएँ, सामाजिक संघर्ष किन्तु हर बार यह राष्ट्र पुनः उठ खड़ा हुआ। इसका कारण केवल बाह्य प्रयास नहीं, अपितु वह आंतरिक अदृश्य शक्ति है जो हमें संरक्षण देती रही है यही परमात्मा की शक्ति है, यही ईश्वर का अनुग्रह है। यह विश्वास ही हमारी सकारात्मक सोच की नींव है कि हम अकेले नहीं हैं, कोई शक्ति हमारे साथ चल रही है, हमारे पुरुषार्थ को संबल दे रही है। यही सोच हमें आशा, साहस और संकल्प देती है।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया
सज्जनों की संगठित शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है
अपने कर्तव्य के निर्वहन के काल में विषम परिस्थितियों को अनदेखा करना चाहिए तभी वह कृत्य आत्मकल्याण के साथ दूसरों को भी कल्याण का मार्ग दिखाने में सक्षम हो जाता है
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इसके अतिरिक्त भैया राघवेन्द्र जी १९७६,भैया पुनीत श्रीवास्तव जी १९८५, भैया मोहन कृष्ण जी १९८६, भैया आशीष जोग जी १९८३, भैया पंकज श्रीवास्तव जी १९८९, भैया उत्कर्ष पांडेय जी का नाम आचार्य जी ने क्यों लिया जानने के लिए सुनें