यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल अष्टमी/नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४३५ वां सार -संक्षेप
आचार्य जी नित्य प्रयत्नशील रहते हैं कि हमारे विकार दूर हों और हमारे भीतर शक्ति, जिससे हम कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकें; बुद्धि, जिससे हम सत्य-असत्य का विवेक कर सकें; विचार, जो हमें सही दिशा दें; कौशल, जिससे हम अपने कर्तव्यों को दक्षता से निभा सकें; और संसार में रहने की शैली, जिससे हम संयम, मर्यादा और सन्मार्ग पर रहकर जीवन जी सकें—ऐसे गुण विकसित हों।
उनका यह प्रयास हमें न केवल व्यक्तित्व-विकास की ओर ले जाता है, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाता है।और इसी कारण हमने अपना लक्ष्य भी बनाया है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
हमारे सनातन धर्म में यह प्रयास किया जाता है कि जीवन में शान्ति रहे और उसके आधार पर जगत् में शान्ति का प्रयत्न होता रहे
मनुष्य की सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें।
गीता के चौथे अध्याय में बताया गया है कि संसार के निर्माता से हमने कितनी शक्ति बुद्धि विचार आदि गुण प्राप्त किए और उनका कितना सदुपयोग किया
यही दिव्य ज्ञान है
अपरा से परा की ओर उन्मुख होना
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।
जिसके सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ संकल्प और कामना से रहित हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्नि से जल गये हैं, उसको ज्ञानीजन भी बुद्धिमान् कहते हैं।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अक्षय अवस्थी जी २००८ और भैया मनीष कृष्णा जी १९८८ का नाम क्यों लिया संवाद कहां आवश्यक हैं अधिवेशन के विषय में आचार्य जी ने क्या चर्चा की जानने के लिए सुनें