प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 7 जुलाई 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४३९ वां सार -संक्षेप
किसी भी संबंध का प्रतिष्ठान प्रेम और विश्वास पर टिका होता है। यदि विश्वास न हो तो प्रेम टिक नहीं सकता। और जब ये दोनों—प्रेम और विश्वास—अपने पूर्ण रूप में विकसित होते हैं, तो व्यक्ति के भीतर अद्भुत शक्ति, गहरी बुद्धि, स्पष्ट विचार, उत्कृष्ट कौशल तथा कुछ कर गुजरने की प्रेरणा स्वतः जाग्रत हो जाती है। ऐसे संबंधों से ही सशक्त समाज और उज्ज्वल भविष्य की नींव रखी जाती है।युगभारती के हम अंश ऐसे ही संबन्धों में विश्वास रखते हैं हमारे भीतर पुरुषत्व है इसी कारण हम परमात्मा के निकट हैं जो जितना अधिक पौरुषहीन है वह परमात्मा से उतना ही दूर है
गीता के सातवें अध्याय में एक छंद में भगवान् कहते हैं कि मैं पुरुषों में पुरुषत्व हूं
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।
हे कौन्तेय ! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में सृष्टि का विस्तार प्रणव अर्थात् ओंकार हूँ तथा आकाश में ध्वनि और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।
पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो;
हृदय की सब दुर्बलता तजो।
प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो—
सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो?
प्रगति के पथ में विचरो उठो;
पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥
जब पुरुषार्थ लक्ष्य से संयुत होता है तब साधक की समस्त शक्तियाँ केंद्रित हो जाती हैं। उसकी बुद्धि स्पष्ट, मन स्थिर और कर्म निर्णायक हो जाता है। लक्ष्य यदि उच्च हो और पुरुषार्थ सतत, तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। यही संयोजन व्यक्ति को महान् उपलब्धियों तक पहुँचाता है।सामर्थ्य पुरुषार्थ का पर्याय है और सामर्थ्य के लिए उत्साह अत्यन्त आवश्यक है वर्तमान में जो हमारा लक्ष्य है वह है २० और २१ सितम्बर का अधिवेशन सफल हो उसकी सफलता हमारे उत्साह में वृद्धि करेगा
इसके अतिरिक्त १३ जुलाई के विषय में आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिए सुनें