18.8.25

प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज भाद्रपद कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 18 अगस्त 2025 का सदाचार संप्रेषण १४८१ वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज भाद्रपद कृष्ण पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार  18 अगस्त 2025 का सदाचार संप्रेषण

  १४८१ वां सार -संक्षेप

ग्राम :सरौंहां


हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था की संरचना इस प्रकार की गई कि यह सरल और सहज न होकर जटिल, टेढ़ी-मेढ़ी हो गई। इसके परिणामस्वरूप विद्यार्थी प्रारंभ से ही भ्रम और द्वंद्व में पड़े रहे तथा ज्ञान के मूल स्रोतों तक उनकी पहुंच कठिन हो गई। 


ऐसी स्थिति में, जब हमने अपनी मातृभाषा और पारंपरिक शिक्षण पद्धति की उपेक्षा करते हुए अंग्रेज़ी माध्यम को प्राथमिकता दी, तब शिक्षा केवल एक औपचारिक प्रक्रिया बनकर रह गई। अंग्रेज़ी भाषा को दक्षता और बौद्धिकता का पर्याय मानते हुए हमने अपने सांस्कृतिक और बौद्धिक मूल्यों से विमुख होना आरंभ किया। 


इस देश में कभी घर-घर में पाठशालाएँ थीं,यहां के गुरुकुल अद्भुत थे जो केवल ज्ञान का केंद्र नहीं थे, वे जीवन निर्माण की प्रयोगशालाएं थीं जिनमें शिक्षा, सेवा, साधना, अनुशासन और आत्मविकास का अद्वितीय समन्वय था। 

 ज्ञान का सहज प्रवाह होता था l

विदेशी आक्रमणों और औपनिवेशिक शासन के दौरान यह प्रणाली कमजोर पड़ती गई। अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली के आगमन के साथ गुरुकुलों को "अप्रासंगिक" बताकर उनकी उपेक्षा की गई।

इस कारण आज शिक्षा केवल चुनिंदा संस्थानों तक सीमित होकर रह गई है। उस सहज, तात्त्विक ज्ञान की परंपरा, जो आत्मा को उन्नयन की ओर ले जाती थी, अब विलोपित होती जा रही है। 


इस स्थिति का प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि हमारे बच्चों की सोच सतही बन गई। वे तत्त्व, सार और मूलभूत सिद्धांतों की ओर उन्मुख नहीं हो सके। आधुनिक शिक्षा की यह त्रुटिपूर्ण दिशा उन्हें उस गहराई तक पहुँचने से वंचित रखती है, जहाँ से सच्चा ज्ञान और विवेक उद्भूत होता है।

आधुनिक समय में भले ही स्वरूप बदल गया हो, लेकिन गुरुकुल की आत्मा को पुनः जीवित करना भारतीय शिक्षा को अपनी जड़ों से जोड़ने का मार्ग बन सकता है। इसके लिए हम ऐसे भावों में प्रविष्ट हों जो हमें प्रेरित करें

भावना न हो तो विचार पल्लवित नहीं होते हैं


भावना का ज्वार कब तटबंध को गिनने चला है

कब किसी युग ने इसे लखकर कहा यह मनचला है

अतः निज भावोर्मियों को किसी भ्रम -भय से न रोको 

परखकर निज कर्मक्रम को भ्रम -भयों को अभय ठोको ll

( अपनी सच्ची भावनाओं को दबाओ मत,भ्रम और भय से डर कर अपने विचारों या कर्मों को सीमित मत करो,आत्मनिरीक्षण करके साहसपूर्वक आगे बढ़ो।)


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया 

जो परिवेश हमें मिलता है उसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है इसके लिए रामू भेड़िया का उदाहरण दिया 

भैया अम्बुज सिंह जी १९९९, भैया मोहन जी, भैया आशीष जोग जी का उल्लेख क्यों हुआ 

कौन पैर टिकाएगा का क्या आशय है अधिवेशन के विषय में क्या सुझाव आज आचार्य जी ने दिए जानने के लिए सुनें