प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज भाद्रपद कृष्ण पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 21 अगस्त 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१४८४ वां* सार -संक्षेप
ग्राम :सरौंहां
यदि हम सकारत्मक सोच रखें तो हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें अत्यधिक सुन्दर और अनुकूल परिवेश मिला है और परिस्थितियां हमारे अनुकूल हैं परमात्मा द्वारा प्रदत्त बुद्धि,विचार, विवेक, शक्ति, पराक्रम को प्रसरित करने पर हम प्रशंसा यशस्विता पाने में सक्षम हैं तो आइये इसी अनुभूति के साथ प्रवेश करें आज की वेला में
हम सभी शिक्षक हैं और साथ ही शिक्षार्थी भी। शिक्षकत्व केवल एक भूमिका नहीं, अपितु सामाजिक धर्म है। शिक्षा केवल ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि वह संस्कार, विचार और चेतना के प्रसार का साधन है। जिस परमात्मा ने हमें रचा है, उसने हमें कुछ कर्तव्य भी सौंपे हैं। इन्हीं कर्तव्यों में एक है -शिक्षार्थी और शिक्षक के भाव से जीवन पथ पर अग्रसर होना।
जब तक हम इस संसार में इस भाव से युक्त होकर चलते रहते हैं, तब तक हमारा विकास सतत बना रहता है हम निरंतर कुछ न कुछ सीखते और सिखाते रहते हैं।
हमारे सनातन धर्म के विलक्षण ग्रंथों में शिक्षा के महत्त्व को विशेष रूप से प्रतिपादित किया गया है। वहाँ स्पष्ट किया गया है कि शिक्षा केवल लौकिक ज्ञान (अपरा विद्या) तक सीमित नहीं है, अपितु वह आत्मज्ञान (परा विद्या) की ओर भी ले जाती है। परा और अपरा विद्या दोनों ही जीवन को समग्रता प्रदान करती हैं — एक से व्यवहार की निपुणता आती है तो दूसरी से आत्मा का साक्षात्कार होता है।
हम मनुष्य के रूप में जन्मे हैं हमें मनुष्यत्व की अनुभूति करनी ही चाहिए यह मनुष्यत्व संगति के आधार पर वृद्धिंगत होता है कुसंगति करके कुमार्ग को अपनी विवशता नहीं बनाना चाहिए
पश्चिम की भोगवृत्ति के अनुगामी नहीं बनना चाहिए
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
हमारे सद्गुण यदि समाजोन्मुखी हैं वे हरेक सजातीय व्यक्ति को रामत्व की अनुभूति कराने में सक्षम हैं तो वे संपूर्ण परिवेश को आनन्दित करने में समर्थ हैं
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मृग शब्द की क्या परिभाषा बताई आज आचार्य जी कहां जा रहे हैं साकल्य की चर्चा क्यों हुई हमें अपने विस्तार के लिए क्या करना चाहिए समाज को विभिन्न भागों में बांटने से क्यों बचना चाहिए जानने के लिए सुनें