प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज भाद्रपद शुक्ल पक्ष प्रतिप्रदा विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 24 अगस्त 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१४८७ वां* सार -संक्षेप
स्थान: ग्राम सरौंहां
हम सौभाग्यशाली हैं गुरु के तात्विक स्वरूप को प्राप्त आचार्य जी नित्य हमारे अंधकार को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं हमारे हित का उपदेश कर रहे हैं हमें कुमार्ग पर जाने से बचा रहे हैं भ्रम भयों में डगमगाने से बचा रहे हैं
इन सदाचार संप्रेषणों से हम तत्त्व प्राप्त करते हैं यह अत्यन्त उत्साहजनक विषय है
आगामी अधिवेशन कोई दिखावा या प्रदर्शन का मंच नहीं है, अपितु यह हमारी श्रद्धा, भक्ति, भाव, विचार और विश्वास के पुष्पों की भेंट है। ऐसे आयोजनों का उद्देश्य आत्म-प्रदर्शन नहीं, आत्म-समर्पण है एक ऐसे मार्ग पर चलने का प्रयास, जिस पर चलकर गुरु गोविन्द सिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, चंद्रशेखर आज़ाद, डॉ. हेडगेवार,पंडित दीनदयाल उपाध्याय आदि महान् आदर्शों ने जीवन समर्पित किया।
इन महामानवों की भाँति हम भी अपने तत्त्व,अपने मूल, अपनी पहचान को जानने और जीने का प्रयास करते हैं।
हमें उनके समान नहीं बनना है जो केवल सुख और सुविधा के समय साथ रहते हैं और विपत्ति में दूर हो जाते हैं। हमें स्थिर, निष्ठावान् और जीवन के हर आयाम में समर्पित रहने वाले साधक बनना है जो केवल उत्सव में नहीं, तप में भी सहभागी हों।
हम समाज को आश्वस्त करना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं उन्हें भ्रमित भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है
उसे विश्वास दिलाना है कि सनातनत्व खिलखिलाता ही रहेगा
कर्म के सिद्धान्त जब व्यवहार बनकर दीखते हैं,
तब भविष्यत् के सभी अंकुर सहज ही सीखते हैं।
और जब सिद्धान्त केवल सूत्रवत् रटवाये जाते,
तभी प्रवचन मन्त्र सारे व्यर्थ यो हीं
फड़फड़ाते।
इसलिए व्यवहार को आदर्श का जामा पिन्हाओ,
नयी पीढ़ी को सनातन धर्म की लोरी सुनाओ।
गुनगुनाओ गीत पुरखों के पराक्रम शौर्य वाले,
नोचकर फेंको मनों पर चढ़ चुके सुख-स्वार्थ जाले।
ज़िन्दगी पौरुष पराक्रम शील संयम की कहानी,
ज़िन्दगी आदर्श पूरित शौर्य विक्रम की निशानी,
गति प्रगति सद्गति जहाँ पर एक स्वर में गीत गाएँ,
द्वन्द्व के आसन्न क्षण निर्द्वन्द्व हो गीता सुनाएँ।
उस धरा पर जन्म लेकर भी अगर हम जग न पाए,
और दृढ़ चट्टान पर भी भ्रम भयों से डगमगाए।
तो भविष्यत् में वही इतिहास हमको क्या कहेगा?
युगयुगों का शौर्य साधक किस तरह हमको सहेगा?
अतः हे, चिंतक विचारक! कर्मपथ पर पग बढ़ाओ,
मातृभू- हित स्वयं का श्रम-स्वेद शोणित भी चढ़ाओ।
आचार्य जी ने कीट भृंग न्याय का अर्थ बताया
जिसे वेदान्त के 'साहचर्य के सिद्धांत' के रूप में भी जाना जाता है, जहाँ लगातार किसी वस्तु या व्यक्ति पर विचार करने से वह व्यक्ति या वस्तु स्वयं भी उसी विचार के अनुरूप ढल जाती है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने दीनदयाल जी का कौन सा अत्यन्त मार्मिक प्रसंग बताया सात्विक जन क्यों भ्रमित हो रहे हैं जानने के लिए सुनें