प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 6 अगस्त 2025 का सदाचार संप्रेषण
१४६९ वां सार -संक्षेप
हिन्दू धर्म की विशेषता इसकी समन्वयी, शाश्वत और बहुआयामी दृष्टि में निहित है। यह कोई पंथ या सम्प्रदाय नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन-दृष्टि है जो व्यक्ति को आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर करती है और साथ ही उसे विश्व के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने का मार्ग दिखाती है।आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि हिन्दू समाज के सुधार आंदोलनों के उदाहरण हैं। वे समय सापेक्ष और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तो हैं, परन्तु शाश्वत नहीं हैं। शाश्वत है वह तत्त्वचिंतन, जो वेदों, उपनिषदों, पुराणों, गीता, मानस से होकर आज भी प्रवाहित हो रहा है।
यह चिंतन भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म—सभी को समाहित करता है। आदि शंकराचार्य जैसे अद्वैतवादी ज्ञानयोगी भी भगवान् की शरण में जाते हैं, जो इस धर्म की विनम्रता और समग्रता का प्रमाण है। अहंकार से बचने के लिए यहां भक्ति को भी स्वीकारा जाता है।
गीता में भगवान् कहते हैं
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।
समस्त योगियों में जो भी श्रद्धावान् योगी मुझ में युक्त हुए अन्तरात्मा से अर्थात् एकत्व भाव से मुझे भजता है, वह मुझे युक्ततम (सर्वश्रेष्ठ) मान्य है।।
हिन्दू धर्म का मानना है कि केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं है, जब तक उसमें प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का भाव न हो। इसलिए भक्ति में शक्ति की अनुभूति होती है, क्योंकि वह व्यक्ति को परमात्मा से जोड़ते हुए अहंकार का विघटन करती है।
इस प्रकार हिन्दू धर्म न तो केवल दर्शन है, न केवल उपासना, न केवल तर्क—यह इन सबका जीवंत समन्वय है। यही इसकी शाश्वतता और विशिष्टता का मूल है।
भारत में जन्मे हम लोगों को इसकी अनुभूति होनी चाहिए और हमने मनुष्य के रूप में जन्म लिया है तो हमें अपने मनुष्यत्व की अनुभूति भी होनी चाहिए
मनुष्य साधक है मनुष्य योनि कर्म योनि है इससे इतर देवता साधना में बाधक हो जाता है वह देवयोनि है
देवता शंकालु रहता है जैसे इन्द्र देव को शंका हुई मानस में आया है :
इंद्र के मन में यह शंका हुई कि देवर्षि, अर्थात् देवता होने के बाद भी जिन्हें ऋषित्व प्राप्त है,नारद मेरी पुरी अमरावती का राज्य चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं।
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥ 125॥
जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इंद्र को,नारद मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते लाज नहीं आई॥
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि शिक्षित व्यक्ति का यदि अध्ययन स्वाध्याय लेखन स्वभाव हो जाता है तो उसे सांसारिक प्रपंचों में घिरे रहने पर भी शान्ति की अनुभूति होती है
आज आचार्य जी ने अधिवेशन के विषय में क्या बताया जानने के लिए सुनें