प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज आश्विन कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 10 सितंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५०४ वां* सार -संक्षेप
स्थान : सरौंहां
हमारे देश भारत का अध्यात्म-क्षेत्र अतीव विलक्षण एवं विस्मयकारक है, परन्तु अतीत में कुछ विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा स्वार्थलिप्सा से प्रेरित होकर सुनियोजित रूप में ऐसा प्रयास किया गया कि सनातनधर्मी भारतीय जनमानस को अपनी आध्यात्मिक परम्परा जो कहती है
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
से विमुख कर दिया जाए। दुर्भाग्यवश वे इस उद्देश्य में सफल भी हुए। फलस्वरूप आज यह भ्रान्त धारणा व्यापक हो गई है कि यदि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक शब्दावली या अध्यात्म के सारगर्भित महत्त्व को नहीं भी जानता, तो उससे कोई विशेष क्षति नहीं होती। ऐसी अवधारणा स्वयं में एक गंभीर बौद्धिक भ्रान्ति है।हमें इस भ्रान्ति को अवश्य दूर करने का प्रयास करना चाहिए
हमारी यह धरा वास्तव में अतीव अद्भुत एवं विलक्षण है, जहाँ पराशक्ति के सतत सक्रिय सान्निध्य से समयानुकूल स्वतःस्फूर्त प्रादुर्भाव होता रहता है। भीषण से भी भीषण संकटों के क्षणों में भी यहाँ अनेक नामी अनामी चिन्तनशील विचारक, गम्भीर मनीषी, तपस्वी आत्मनिष्ठ साधक तथा पुरुषार्थपरायण महापुरुष निरन्तर प्रकट होते रहे हैं जिनके कारण ही इन्द्रियातीत विषयों के प्रति हमारा तीव्र अनुराग उत्पन्न हुआ। उनके असाधारण तेज, लोककल्याणकारी कृतित्व एवं दिव्य जीवनदृष्टि को देखकर सामान्य जन समुदाय उन्हें दिव्यशक्ति का मूर्त रूप, यहाँ तक कि ईश्वर का अवतार मानने लगता है। *हमारी युगभारती संस्था का मूल चिन्तन अध्यात्म और शौर्य का सामञ्जस्य है* l
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने अधिवेशन को सफल करने के लिए क्या सूत्र बताए,कृष्ण को कौन केट लिखता था,किनका शब्दाडम्बर हमें व्याकुल करता है, हमारे पूर्वज क्यों महत्त्वपूर्ण हैं जानने के लिए सुनें