राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज आश्विन कृष्ण पक्ष षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 13 सितंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५०७ वां* सार -संक्षेप
स्थान : सरौंहां
प्रातः ५:३५
जो व्यक्ति रामात्मकता में रम जाता है वह केवल लौकिक सत्ता का अनुगामी न रहकर, अद्भुत आध्यात्मिक चेतना से अनुप्राणित होता है। भगवान् राम की मर्यादा, धर्मनिष्ठा, त्याग, सहिष्णुता एवं लोककल्याण की भावना जब किसी के जीवन का अवलम्ब बन जाती है, तब उसका व्यक्तित्व केवल वैयक्तिक सीमाओं में आबद्ध नहीं रहता, वरन् वह समष्टि की चेतना से एकात्म स्थापित कर लेता है
ऐसे मनस्वी पुरुष में आत्मबल, धैर्य,शौर्य, संकल्प, विवेक, समत्व एवं सहिष्णुता आदि गुण सहज ही प्रकट होते हैं। उसका कर्तृत्व, चिन्तन, व्यवहार एवं दृष्टिकोण सम्पूर्ण लोकहित की ओर उन्मुख हो जाता है, जिससे उसकी ऊर्जा अनन्तगुणित प्रतीत होती है यही कारण है कि रामभाव में रमण करने वाला व्यक्ति असाधारण सामर्थ्य का धनी हो जाता है।
भगवान् राम की तरह ही जब कोई व्यक्ति अपने आध्यात्मिक मूल्यों के साथ खड़ा होकर अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करता है, अपने धर्म की रक्षा हेतु त्याग करता है और निर्भय होकर राष्ट्र, समाज या संस्कृति के लिए आगे आता है तब उसका अध्यात्म शौर्य से ओतप्रोत हो जाता है।
यह अध्यात्म न केवल भीतर की शुद्धता चाहता है, बल्कि बाहर की व्यवस्था में भी संतुलन और धर्म की स्थापना के लिए तत्पर रहता है। यही "शौर्य प्रमंडित अध्यात्म" है
रामात्मकता या कृष्णात्मकता या शिवात्मकता आदि सनातन धर्म का विश्वास है यही विश्वास इस विचित्र संसार का आधार है
हम भी अपनी शक्ति भक्ति बुद्धि विचार समाजोन्मुखी भाव से आगामी अधिवेशन करने जा रहे हैं जो एक प्रकार से हमारा परीक्षा स्थल है उसमें हम तत्परता से जुट जाएं एकत्र होकर किसी संकल्प को सिद्ध करने की योजनाएं बनाना ही अधिवेशन है
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