प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज आश्विन कृष्ण पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 18 सितंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५१२ वां* सार -संक्षेप
स्थान : सरौंहां
यदि हम प्रतिदिन कुछ क्षणों के लिए सांसारिकता का विस्मरण कर, संसार की सारगर्भिता एवं तत्त्वदृष्टि का अवगाहन करें, तो अद्भुत आध्यात्मिक सामर्थ्य की प्राप्ति संभव है। यह साधना सत्सङ्ग संत समागम के माध्यम से ही सुलभ है।
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
अनेक बार जब हम एकल जीवन में रहते हैं तो अनगिनत विकारों के आने की संभावना बन जाती है इस कारण हमें एकांतता (seclusion ) से बचना चाहिए और सत्संग की ओर उन्मुख होना चाहिए
सत्संग क्या है?
जीव स्वयं की आत्मसत्ता, आध्यात्मिक लक्ष्य एवं जीवन के परमार्थ को समझने का यत्न करता है,दूरदर्शी तत्त्वदर्शी संत महापुरुषों की सन्निधि में रहकर,
सत्सङ्ग कहलाता है।
संत का स्वभाव और उनका जीवन चरित्र कपास (कपास के पौधे) के समान होता है। जैसे कपास बाहर से नरम, भीतर से गुणमय और उपयोगी होता है, वैसे ही साधुजन बाहर से सहज और भीतर से गुणसम्पन्न होते हैं।
वे दूसरों के दुःख को सहते हैं, दूसरों की बुराइयों को छिपाते हैं, उनका प्रकटीकरण नहीं करते। ऐसे सज्जनों को संसार में आदर और यश प्राप्त होता है।
(साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दु:ख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥)
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
दुष्ट व्यक्ति भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर सोना बन जाता है, किन्तु दैवयोग से यदि सज्जन कुसंगति में भी पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं।
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