प्रेम का प्रवाह शौर्य-शक्ति की उमंग संग
देशभक्ति की विभक्ति संयम के साथ हो,
गात हो सशक्त तप्त लौह के समान शुभ
बात-बात में स्वदेश चिन्तन का माथ हो,
एक माँ के पूत हम एक कुल वंश एक
एक लक्ष्य भक्ष्य एक निष्कलंक पाथ हो
साथ हो न एक क्षण कामी लोभी लोलुप का
मन में बसा सदैव अवध का नाथ हो ॥
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज भाद्रपद शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 सितंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१४९७ वां* सार -संक्षेप
स्थान : सरौंहां
सा विद्या या विमुक्तये
वही विद्या वस्तुतः *सार्थक* एवं *श्रेेष्ठ* मानी जाती है, जो प्राणी को *बंधन* (अज्ञान, मोह, भ्रम, आसक्ति आदि) से विमुक्त करे।
अर्थात्
वह विद्या ही प्रशस्त एवं ग्राह्य मानी जाती है, जो जीवात्मा को भवबंधन की अविद्यामूलक संकुचित अवस्थाओं से उन्मुक्त कर चैतन्य के परिमार्जित स्वरूप की ओर अग्रसर करती है। जो ज्ञान केवल लौकिक प्रपंच में कुशलता दे, किन्तु आत्मचिन्तन की दिशा न दे, वह अधूरा है।
मुक्ति हेतु जो ज्ञान हो, वही विद्या है, जो यह स्पष्ट करे कि हम त्यागपूर्वक उपभोग करें, लालच न करें, गुरु और शिष्य के बीच किसी भी नकारात्मक ऊर्जा को दूर करे अन्यथा वह केवल जानकारी (सूचना) भर है, न कि आत्मोन्नयन का साधन।
आज के संदर्भ में कह सकते हैं कि समाज को गरीबी, विषमता, भेदभाव से मुक्त करना ही विद्या का वास्तविक उद्देश्य है। ऐसा अद्भुत है हमारे सनातन धर्म का चिन्तन
इस पर हमें विचार करना ही होगा ताकि हमारा व्यवहार स्वाभाविक रहे और हम लोग ऐसा कर भी रहे हैं हम लोग अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निभाते हुए समाजोन्मुखी चिन्तन कर रहे हैं और उसी विलक्षण चिन्तन के लिए कार्यरत रहते हैं
हमारा आगामी अधिवेशन इसी का प्रदर्शन है ताकि समाज को दिखे कि गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए भी उसके लिए कुछ किया जा सकता है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया शुभेन्द्र जी, भैया न्यायमूर्ति सुरेश जी, भैया न्यायमूर्ति तरुण सक्सेना जी, भैया डा अवधेश तिवारी जी के नाम क्यों लिए, सैन्य स्वभाव क्या है जानने के लिए सुनें