28.10.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 28 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५५२ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 28 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५५२ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ३४

जो परमार्थ में लगे हैं वे प्रपंच से मुक्त हैं इस कारण प्रातःकाल हमें परमार्थ की अनुभूति करनी चाहिए और उसकी अभिव्यक्ति में आनन्द का अनुभव होना चाहिए



दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥


जो कुछ भी इस संसार में है — घर, परिवार, धन, भूमि, सुख-सुविधाएं — और जो कुछ हम अनुभव करते हैं, वह सब मोह को उत्पन्न करने वाला है। इनसे परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। अतः इनमें आसक्ति रखकर जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य नहीं पाया जा सकता।


जब हम संसार में निवास करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से उसके व्यवहारों, संबंधों और गतिविधियों में लिप्त हो जाना सामान्य बात है। परंतु यह लिप्तता यदि सेवा, त्याग, समर्पण,चिन्तन जो चिन्ता का निरसन करने में सक्षम रहता है, स्वाध्याय और लेखन जैसे सत्कर्मों की दिशा में हो, तो वह दिव्यता धारण कर लेती है। यह  ईश्वर की कृपा ही है कि हमें ऐसे कार्यों में प्रवृत्त होने का अवसर मिला है।


हमने शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन और सुरक्षा नामक महत्त्वपूर्ण मूल्यों को धारण करने का व्रत लिया है। यह व्रत समाज के कल्याण और राष्ट्र की उन्नति के लिए है।  विद्या और अविद्या दोनों की समन्वित समझ से ही पूर्ण जीवन संभव है इस प्रकार का जीवनदृष्टिकोण ही सनातन परम्परा के अनुरूप है, जिसमें संसार में रहकर भी सार की ओर उन्मुख रहने की प्रेरणा दी गई है।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बैरिस्टर साहब का उल्लेख क्यों किया आगामी रविवार को होने जा रहे स्वास्थ्य शिविर के विषय में क्या परामर्श दिया जानने के लिए सुनें