प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज आश्विन शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५२७ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ९
राष्ट्र के प्रति निष्ठावान् बनें
हमारा सनातन धर्म अद्भुत है भारतीय संस्कृति अप्रतिम है हम भारत-भक्तों का आत्म सदैव संयम, मर्यादा और मधुरता से युक्त रहा है।
आत्मवत् सर्वभूतेषु, यो पश्यति सः पण्डितः।
हमने ही संपूर्ण वसुधा को अपना कुटुम्ब माना
यह इंगित करता है कि भारतीय संस्कृति कभी उच्छृंखल या अराजक नहीं रही, बल्कि उसमें आत्मनियंत्रण और संतुलन की परंपरा रही है। हमारे कर्म लोभ या तृष्णा से प्रेरित नहीं होते, बल्कि उद्देश्यपूर्ण और कल्याणकारी होते हैं, जिनसे हम विभास प्रसरित करते हुए विकास के उच्च सोपानों की ओर बढ़ते हैं।हमारी अपेक्षा उस ईश्वर से है जो इस समस्त सृष्टि का रचयिता है हम व्यक्ति से याचना नहीं करते हमारे वे सभी मित्र हैं जो मानते हैं कि भारत केवल एक भूभाग, एक भौगोलिक सीमा या नक़्शे पर अंकित कोई क्षेत्र नहीं है भारत एक जीवंत चेतना है, भारत लाखों वर्षों से ज्ञान, तप, त्याग, साधना और मानवमात्र के कल्याण की भावना से ओतप्रोत रहा है। यहाँ की मिट्टी में ऋषियों की तपश्चर्या, वीरों की शौर्यगाथाएँ, संतों की करुणा है हमारे वे सभी बन्धु हैं जो भारत को केवल सामान्य राष्ट्र नहीं बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, जो विश्व के लिए मार्गदर्शक रहा है और रहेगा।
हमारा स्वत्व संयम की मधुर भाषा रहा हरदम
हमारे कर्म लिप्सा मुक्त हो सोपान चढ़ते हैं
हमारी याचना उससे कि जो संसार रचता है
हमारे मित्र वे हैं जो स्वधा का मंत्र पढ़ते हैं ।
आचार्य जी सौभाग्यशाली रहें हैं कि
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघ चालक "श्री गुरुजी" के उन्होंने दर्शन किए हैं उनका सान्निध्य उन्हें प्राप्त हुआ
आचार्य जी की दृष्टि में गुरु जी कैसे थे निम्नांकित पंक्तियों में देखिए
युग-पुरुष तुम्हें युग का प्रणाम ।
सदियों से सोया पड़ा शौर्य निष्पंद मौन मन स्वाभिमान
जब पौरुष हुआ प्रमाद - भ्रमित वैभव में खोया महीयान
आत्मस्थ आत्मरत चिन्तन केवल 'भूमा' से संयुक्त हुआ
कर्मानुराग सेवा संयम के आदर्शों से मुक्त हुआ
तब उस कलिमल से ग्रसे समय तुम प्रकटे शिव संकल्पवान ।। १ ।।
युग-पुरुष.....
प्रकटे तुम वीरव्रती अवतारी ज्योति पुरुष सत के प्रतीक
ऊर्जस्वी कुल के आदि पुरुष जैसे तेजस्वी ऋषि ऋचीक
सद्धर्म मर्म की व्याख्या तुम पावन तप की परिभाषा से
संयम के उर में बसी कर्म-कौशल की चिर अभिलाषा से
हे विजयव्रती वैरागी अनुरागी त्यागी शुभ आप्तकाम ||२||
युग -पुरुष.....
इसके अतिरिक्त आचार्य जी आज कहां हैं भैया मनीष जी का उल्लेख क्यों हुआ भैया विभास जी की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें