प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 17 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५७२ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५४
कथा कहानियों के माध्यम से अपनी सन्ततियों को भारतीय संस्कृति सनातन धर्म के वैशिष्ट्य से परिचित कराएं ताकि वे स्वाश्रयी
, आत्मविश्वासी, तत्त्चदर्शी बन सकें
तार्किक व्यक्ति, अर्थात् जो केवल बुद्धि और तर्क के आधार पर जीवन का मूल्यांकन करते हैं, वे प्रायः संसार की सीमा से ऊपर नहीं उठ पाते। उनका चिंतन सीमित होता है, क्योंकि वे प्रत्येक बात को केवल तर्क की कसौटी पर कसते हैं और अनुभूति, आस्था या भावना के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाते। इस कारण वे जीवन के उस गूढ़ पक्ष से वंचित रह जाते हैं जो तर्क से परे है।
इसके विपरीत, भावनाशील या भाववादी व्यक्ति, जो हृदय के स्तर पर अनुभव करते हैं, वे संसार की सीमाओं को लांघ जाते हैं। उनका जीवन केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि आत्मिक होता है। वे जीवन को अनुभव करते हैं, उसमें रमते हैं, और उसकी गहराइयों तक पहुँचते हैं।
ऐसे भावनाशील व्यक्तियों का जीवन विशेष प्रकार का होता है। वे बाह्य परिस्थितियों से नहीं, अपने अन्तःकरण की शांति और आस्था से आनंद प्राप्त करते हैं। इसलिए वे जीवन में स्थायी आनन्द की अनुभूति करते हुए सहज, सरल और दिव्य मार्ग पर अग्रसर होते हैं।
इन सदाचार वेलाओं के माध्यम से हम इसी प्रकार के सदाचारमय विचार ग्रहण करते हैं सदाचार का अर्थ है सत् का आचरण
सत् क्या है?
तत् सत् वही सत् है
वही अर्थात् जो इसे रचता है हम भी उसी की रचना हैं
हमें उस स्रष्टा के प्रति पूर्ण आस्था रखनी चाहिए किसी प्रकार का इसमें भ्रम नहीं होना चाहिए कागभुशुण्डि के भ्रम को दूर करते हुए भगवान् कहते हैं
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥4॥
भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग- इन सबके भेद को तू मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा॥4॥
अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1॥
अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह 'निज सिद्धांत' सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर॥1॥
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2॥
यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है।यहां अनेक प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। किंतु मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥2॥
और जब भगवान् के हम सबसे प्रिय हैं तो हमें किसी प्रकार का भय और भ्रम नहीं होना चाहिए हम अपने शरीर को स्वस्थ रखने की चेष्टा करें मनुष्यत्व की अनुभूति करते हुए कुटुम्ब की ओर उन्मुखता करें यही बिन्दुत्व से सिन्धुत्व का परिवर्तन है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मदालसा, रन्तिदेव और मोरध्वज का उल्लेख क्यों किया जानने के लिए सुनें