कभी उत्साह का उत्सव निराशा की कहानी हूं
जगत की साधना -सरिता -समय का दिव्य पानी हूं
स्वयं को भूलकर जड़ विन्ध्य जैसा विस्तरण होता
स्वयं को याद कर कैलाश जैसा दिव्य ज्ञानी हूं
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 22 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५७७ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ५९
प्रेम का विस्तार संगठन का आधार है अतः आपस में प्रेम के विस्तार के प्रयास करते रहें
वर्तमान समय में हमारा समाज अनेक प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहा है, विशेषकर सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों, परम्पराओं और मूल्यों को दुर्बल करने के प्रयत्न निरन्तर हो रहे हैं। ये प्रयत्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में सामने आ रहे हैं कहीं वैचारिक भ्रम फैलाकर, कहीं सामाजिक विघटन द्वारा, तो कहीं सांस्कृतिक जड़ें काटने के प्रयास से।
ऐसे में हम सनातन धर्म अर्थात् वह धर्म जो जीवन के सत् और तत् को व्याख्यायित करता है जो कहता है कि व्यक्ति अपने कर्मों का स्मरण करे न कि शरीर का जो विद्या और अविद्या दोनों को आवश्यक बताता है जो विनाश को ईश्वर की लीला मानता है और जो मनुष्य को मनुष्यत्व की अनुभूति कराता है,के अनुयायियों को केवल भावनात्मक नहीं, अपितु सजग, जागरूक, सतर्क और संगठित होने की आवश्यकता है। हमें स्थान-स्थान पर ऐसे जीवन्त संगठन खड़े करने होंगे या ऐसे संगठनों को साथ लेना होगा, जो समाज को जोड़ने का कार्य करें, लोगों को अपने धर्म, संस्कृति और परम्परा के प्रति आत्मबोध दें और साथ ही विघटनकारी शक्तियों का शास्त्र और शस्त्र दोनों से प्रतिकार करें।
यह आवश्यक इसलिए है क्योंकि आज अनेक ऐसी शक्तियाँ जो भले ही आधुनिकता, उदारवाद या प्रगतिशीलता के आवरण में हों वास्तव में सनातन जीवनदृष्टि को समाप्त करने का षड्यंत्र रच रही हैं। ये धर्म को केवल एक रूढ़ि के रूप में प्रस्तुत कर युवा मन को उससे विमुख करना चाहती हैं।अतः आवश्यक है कि हम अपने लक्ष्य का ध्यान रखें l
इसके अतिरिक्त जो हमारी संस्था युगभारती का आजीवन सदस्य बनता है वह हमें धन के साथ और क्या सौंप देता है भैया मनीष कृष्णा जी भैया पंकज जी का उल्लेख क्यों हुआ पूजा पाठ के छंदों के भाव में जाने से आचार्य जी का क्या आशय है जानने के लिए सुनें