प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 3 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५५८ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४०
समाज को स्वस्थ बनाने का प्रयास करते रहें
आचार्य जी नित्य हमें प्रेरित करते हैं यह हमारा सौभाग्य है
आचार्य जी भी हमें समाजोन्मुखी होने के लिए उसी प्रकार प्रेरित करते हैं जिस प्रकार तुलसीदास जी के गुरु ने उन्हें प्रेरित किया और उस प्रेरणा से उन्होंने समाज को जाग्रत करने का एक अद्भुत प्रयास कर डाला उस गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
आचार्य जी ने स्पष्ट किया कि अपने विचारों को दूसरों के साथ साझा करना, संवाद स्थापित करना और फिर मिलकर योजना बनाना सामाजिक और आत्मिक उन्नति का मार्ग है। जब व्यक्ति अपने विचारों को सामूहिक हित में प्रस्तुत करता है, तो उसकी दृष्टि व्यापक होती है और वह केवल अपने लिए नहीं, अपितु समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए सोचने लगता है।
इस प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि हम न निराश हों, न हताश, क्योंकि सेवा और सुधार का मार्ग सहज नहीं होता। इसके साथ ही दंभ और अहंकार का निरसन भी अनिवार्य है, क्योंकि आत्मप्रशंसा सेवा की आत्मा को नष्ट कर देती है।
निष्काम भाव से सेवा में लगना ही वास्तविक कर्तव्य है। यह सेवा तब और प्रभावी होती है जब हम सज्जनों की संगति में रहें क्योंकि सत्संग से ही विवेक और प्रेरणा प्राप्त होती है। राजनीति के पंक में फँसने से उद्देश्य भटक सकता है, इसलिए आवश्यक है कि सेवा कार्य राजनीति से प्रेरित न होकर धार्मिक और आध्यात्मिक प्रेरणा से संचालित हो।
समूह में बैठकर चर्चा करना और प्रश्न पूछना यह एक श्रेष्ठ साधन है आत्मविकास और सामाजिक दिशा प्राप्त करने का। जितना अधिक हम प्रश्न करेंगे, उतना ही हम सीखेंगे और जानेंगे।
अंततः यह स्मरण रहे कि हमारा कार्य सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर उपयोगी हो, किन्तु उसकी जड़ें अध्यात्म में गहराई तक जुड़ी हों। तभी सेवा कार्य स्थायी, पवित्र और प्रभावी बन सकता है।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने कल संपन्न हुए शिविर के विषय में क्या बताया आचार्य जी का मृत धन से क्या आशय है जानने के लिए सुनें