नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 4 नवंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५५९ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ४१
ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करें जो प्रेरणादायी हो
जब तक जीव मोह से ग्रस्त है, तब तक वह आत्मस्वरूप की जागृति को प्राप्त नहीं कर सकता। स्वप्नों की भांति संसार की दृश्यमान वस्तुएँ भी मिथ्या हैं वे केवल मोहजन्य प्रतीति हैं। अतः भगवत्कृपा या सत्संगादि साधनों द्वारा मोह की रात्रि का विनाश और आत्मबोध का प्रभात आवश्यक है।
जागु, जागु, जीव जड़ ! जोहै जग - जामिनी ।
देह - गेह - नेह जानि जैसे घन - दामिनी ॥१॥
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति - संताप रे ।
बूड्यो मृग - बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥२॥
आचार्य जी हमें जागरूक करने का आह्वान करते हैं कि हम मोह, माया और अज्ञान के आवरण से मुक्त होकर आत्मबोध की दिशा में अग्रसर हों संसारिक आसक्ति में रत मनुष्य चेतना-विहीन होकर विषयों में डूबा रहता है, परंतु वह जान नहीं पाता कि उसकी गति विनाश की ओर है। यह चेतना ही अध्यात्म का प्रथम सोपान है।हमें आत्मबोध होना चाहिए कोई भ्रम नहीं कोई भय नहीं रामाश्रित होने का प्रयास करें
आत्मा का शुद्ध, निर्विकल्प और सर्वव्यापी स्वरूप अद्भुत है वह निराकार, सर्वत्र व्याप्त, समभावयुक्त है, वह न बंधन में है न मुक्त होने की अपेक्षा रखता है। उसका स्वभाव चैतन्य और आनंदमय है। वही शिव है — पूर्ण, स्वतंत्र और कल्याणकारी चेतना।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया
नाम के साथ जीवन का तत्त्व संयुत होता है और रूप के साथ जीवन का यथार्थ परिलक्षित होता है
जीजाबाई का उल्लेख क्यों हुआ
युगभारती के बैच १९७५ का सम्मेलन कब हो किन्हें नित्य कार्य दिये जाएं अधिवेशन में आनन्द कैसे प्राप्त होगा जानने के लिए सुनें