प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज पौष कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 7 दिसंबर 2025 का उपदेश
*१५९२ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ७४
हम सब अपने संगठन में प्रेम और आत्मीयता के विस्तार का यथासंभव प्रयास करें
यदि परिवार के किसी एक सदस्य को कष्ट होता है और शेष सभी सदस्य उसके दुःख को अपना दुःख मानकर उसकी चिन्ता करते हैं, उसे दूर करने का प्रयास करते हैं, तो यही भाव 'परिवार-भाव कहलाता है। इसमें सभी सदस्य एक दूसरे के सुख दुःख के सहभागी होते हैं। कोई भी कष्ट अकेले नहीं झेलता सभी मिलकर उसका समाधान ढूंढते हैं। यही सच्चा पारिवारिक जीवन है जहाँ आत्मीयता, सहयोग और सहानुभूति का सामूहिक भाव होता है। यह भाव केवल रक्त-संबंधों से नहीं आता, बल्कि आपसी समझ, समर्पण और संवेदना से विकसित होता है। यही भाव परिवार को एकजुट और सशक्त बनाता है। हमें अपने संगठन युगभारती को इसी भाव के साथ सशक्त बनाना हैl
संगठन में शंका का अंकुर अत्यन्त भयानक होता है हम सब मिलकर प्रयास करें कि यह उपज न पाये l
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥ 57(ख)॥
यह सोरठा प्रेम की सच्ची प्रकृति और उसकी कोमलता को अत्यन्त सूक्ष्मता से समझाता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि जल और दूध दोनों एक साथ होते हैं, तो कोई अंतर कर पाना कठिन होता है। यही स्थिति सच्चे प्रेम की होती है जहाँ दो आत्माएँ या दो व्यक्तित्व इतनी आत्मीयता से जुड़ जाते हैं कि भेद ही मिट जाता है किन्तु यदि इन दोनों को अलग करने का प्रयास किया जाए जैसे दूध और जल को अलग किया जाए तो स्वाद चला जाता है, प्रेम की मिठास समाप्त हो जाती है। इसका संकेत यह है कि प्रेम में भेद की भावना आती ही नहीं, और यदि आ जाए तो उसकी आत्मा नष्ट हो जाती है lअतः हम सबका सामूहिक प्रयास हो कि भेद की भावना न आ पाए l
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया डा अमित जी भैया डा मनीष वर्मा जी भैया सूर्यांक जी आदि का उल्लेख क्यों किया जानने के लिए सुनें