इस जग में सुख दुख सभी, आते जाते भोग।
कभी वही सुखप्रद लगे, कभी कष्टप्रद रोग ॥
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज पौष कृष्ण पक्ष पञ्चमी/षष्ठी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 9 दिसंबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५९४ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ७६
देश संकट में है इस कारण हमें संगठित रहने की अत्यन्त आवश्यकता है
जब शरीर अस्वस्थ होता है, तब स्वाभाविक रूप से मन भी उदास या विचलित हो जाता है। किंतु यदि ऐसी स्थिति में भी मन प्रसन्न, शांत और प्रफुल्लित बना रहे, तो यह एक विशिष्ट और दुर्लभ अनुभव है। यह केवल परमात्मा की कृपा से ही संभव होता है।ऐसी अवस्था में व्यक्ति को अपने शारीरिक कष्ट की अनुभूति होते हुए भी उसका मानसिक भार नहीं लगता।यही उस परमात्मा की अद्भुत लीला है कि वह हमें हमारे ही शरीर के दुःख से कुछ समय के लिए अलग कर देता है और आनन्द की अनुभूति कराता है। यह अवस्था आध्यात्मिक उन्नयन की ओर संकेत करती है
गीता में १८वें अध्याय में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के स्वाभाविक कर्म बतलाए गये हैं ब्राह्मण अर्थात् जो ब्रह्मत्व को प्राप्त हैं (ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से ही ब्राह्मण नहीं ) के कर्म इस प्रकार हैं
मन का निग्रह करना इन्द्रियों को वश में करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना जिस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह, गुरु तेग बहादुर आदि ने कष्ट सहे; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना -- ये सब-के-सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।18.42।।
इसी प्रकार अन्य के कर्म हैं l
बाह्य और आन्तरिक दोनों स्तरों पर शुद्ध रहना ही सनातन धर्म का मूल चिन्तन है।
यह विचार केवल बाहरी स्वच्छता या शारीरिक पवित्रता तक सीमित नहीं है, बल्कि मन, वचन और कर्म की शुद्धता को भी सम्मिलित करता है सनातन धर्म हमें यही सिखाता है कि केवल क्रियाएँ नहीं, बल्कि भावनाएँ भी निर्मल हों, तभी जीवन सच्चे अर्थों में धर्ममय बनता है।
इसके अतिरिक्त कर्मभोग क्या है भैया डा अमित जी का उल्लेख क्यों हुआ सोना माटी किस कारण हुआ जानने के लिए सुनें