30.11.21

दिनांक 30/11/2021 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है जैवातृक आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 30/11/2021 का सदाचार संप्रेषण


मनोयोग पूर्वक काम करते करते हम लोग उस काम में रम जाते हैं और तब हमें अपने शरीर की व्यथाओं का भी अनुमान नहीं लगता

मन पर लिखी आचार्य जी ने अपनी रची एक कविता सुनाई

मानव हूं मन के साथ सदा रहता हूं,

अनायास ही रुक टुक कर बहता रहता हूं।

मन मानव का शत्रु मित्र परिवार पड़ोसी

बेचारा मित्रता निभाकर बनता दोषी,

आजीवन मानव का उसने साथ न छोड़ा

नहीं किसी भी दिशा काल में बंधन तोड़ा,

फिर भी संत विरक्त और ज्ञानी विज्ञानी

आत्मा के हिमायती त्रिकुटी वाले ध्यानी ,

अरे मन को सदा कोसते चिढ़ते नहीं अघाते,

और 'मन को बांधो'  सबको हरदम यही बताते ,

और मन बेचारा है कि सभी कुछ सहता रहता,

कभी किसी से नहीं न किंचित कहता ,

अपमानित होकर भी पूरा साथ निभाता,

इसीलिए यह मेरा साथी मुझको भाता ,

मैं सलाह दूंगा 'अपने मन को पहचानो'

और उससे बात करो उसका अभ्यन्तर जानो।।

आप अपने मनस् में उतरकर यह अनुभूति करें कि मैं कौन हूं

गीता में 

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।


न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।

अर्जुन ! मानव न तो कर्मो को न आरम्भ करने से निष्कर्मता की अन्तिम स्थिति को पाता है और न आरम्भ की हुई क्रिया को त्यागने भर से भगवत् प्राप्ति रूपी परम सिद्धि को  प्राप्त होता है। अब तुम्हें ज्ञान मार्ग अच्छा लगे या निष्काम कर्म मार्ग, दोनों मे कर्म तो करना ही पङेगा। 

           प्रायः इस स्थान पर लोग भगवत्पथ में संक्षिप्त मार्ग और बचाव ढूँढने लगते हैं। "कर्म आरम्भ ही न करें , हो गये निष्कर्मी"- कहीं ऐसी भ्रान्ति न रह जाय, इसलिये श्रीकृष्ण बल देते हैं कि कर्मों को न आरम्भ करने से कोई निष्कर्म भाव को नहीं प्राप्त होता। शुभाशुभ कर्मो का जहाँ अन्त है, परम निष्कर्मता की उस स्थिति को कर्म करके ही पाया जा सकता है। इसी प्रकार बहुत से लोग कहते हैं, "हम तो ज्ञान मार्गी है, ज्ञान मार्ग में कर्म है ही नहीं।"- ऐसा मानकर कर्मो को त्यागने वाले ज्ञानी नहीं होते। आरम्भ की हुई क्रिया को त्यागने मात्र से कोई भगवत् साक्षात्कार रूपी परम सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है l

तदाकार होना अत्यन्त आवश्यक है 

आचार्य जी ने यह बताया कि जब वे BA में थे तो उनको अध्यापक खेर जी और अध्यापक वाजपेयी जी ने किस तरह पढ़ाया

आप जो काम कर रहे हैं उसको भली प्रकार से समझते हुए करते चलेंगे तो आपको अच्छा भी लगेगा और आप उसके रहस्यों को भी जानते जाएंगे

आचार्य जी ने 

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।


यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं


समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।


तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे


स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।

को उद्धृत करते हुए बताया कि जब हमने संपूर्ण संसार के आनन्द को भोग लिया और इस आनन्द की अनुभूति करने के पश्चात् हम यह भी जानें कि आनन्द का स्रोत क्या है  तो यह जिज्ञासा ही अध्यात्म का द्वार है l तब लगता है कि यह संसार अच्छा नहीं है कुछ और अच्छा है यही मोक्ष है


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