बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥
बादल पृथ्वी के समीप आकर बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत उसी तरह सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहन करते हैं
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष शुक्ल पक्ष द्वादशी (कूर्म द्वादशी )विक्रमी संवत् २०८१ तदनुसार 11 जनवरी 2025 का सदाचार सम्प्रेषण
*१२६२ वां* सार -संक्षेप
आचार्य जी का एक धर्म बन गया है कि वे नित्य हमारा मार्गदर्शन करते हैं
हम सांत ( क्योंकि हमारा शरीर एक सीमा तक ही है इस कारण उसका अन्त निश्चित है )लोगों के जाने के पश्चात् भी लोग यदि हमारी अच्छाइयों की चर्चा करते हैं तो यह चर्चा या स्मरणीय तत्त्व ही अमरत्व है इसी कारण भारतीय चिन्तन में इस बात पर जोर दिया जाता है कि हम काम ऐसे करें कि हमारे इस धरा धाम से जाने के बाद भी हमारी निन्दा न हो इसी अमरत्व की उपासना का सदैव हम प्रयास करते हैं
नाम का अंत नहीं होता है यदि उसके साथ कर्म संयुत है गीता के तीसरे अध्याय में कर्म की अद्भुत मीमांसा हुई है व्याकुल अर्जुन को भगवान् समझा रहे हैं
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3.30।।
जो भी कर्म करो उसका मुझ में संन्यास करके, आशा और ममता से विरहित, सन्तापरहित हुए तुम युद्ध अवश्य करो ।
यह अध्यात्म बोध का द्वार है ईश्वर के प्रति संपूर्ण आस्था होनी चाहिए हमें अपना धर्म याद रखना चाहिए आज का युगधर्म शक्ति उपासना है जिसके कारण संगठन की शक्ति महत्त्वपूर्ण हो जाती है
अच्छी तरह से आचरण में लाए गए दूसरे के धर्म से गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है
सबके अलग अलग कर्म हैं
युद्ध में सैनिक का धर्म युद्ध करना है न कि भजन करना
इसी तरह हम राष्ट्र -भक्तों को निराश नहीं रहना चाहिए क्योंकि हमारी परंपरा अद्भुत रही है जिसमें निराशा का कोई स्थान नहीं है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी से भैया पंकज जी ने क्या आग्रह किया
श्री शंकर श्रीपाद बोडस जी जो गायक विष्णु दिगंबर पलुस्कर के शिष्य थे का कौन सा प्रसंग आचार्य जी ने बताया जानने के लिए सुनें