मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 9 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५३३ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं १५ : शस्त्र भी शास्त्र के समान हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक हैं
हमने समाज और देश के प्रति निष्कलंक सेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया है। आचार्य जी स्वयं भी इसी भावना से अनुप्राणित हैं अतः हमें चाहिए कि उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से जाने न दें। तो आइये प्रवेश करें आज इसी अवसर के रूप में विद्यमान इस सदाचार वेला में
विश्वामित्र ऋषि केवल तपस्वी या ब्रह्मर्षि ही नहीं थे, अपितु वे एक दूरदर्शी राष्ट्रचिन्तक भी थे। उन्होंने धर्म, समाज और राष्ट्र के व्यापक हित के लिए केवल यज्ञ-सम्पादन या वैदिक अनुष्ठानों की रक्षा का संकल्प नहीं लिया था, बल्कि उन्होंने उस उभरते हुए संकट के निवारण का मार्ग भी निर्धारित किया, जो तत्कालीन समाज को भीतर से ग्रस रहा था।
सत्ता के शिखर पर बैठे राजा दशरथ और जनक जैसे शासक, वैभव और गर्व में निमग्न होकर राष्ट्रहित की उपेक्षा कर रहे थे। जब कि राक्षसी शक्तियाँ ताड़का, मारीच, सुबाहु आदि संतों के यज्ञ विध्वंस कर रही थीं और वे राजा केवल अपनी अपनी सीमाओं में सिमटे थे। समाज में भय व्याप्त था, यज्ञ स्थगित हो रहे थे, ऋषि विह्वल थे, पर शासकों की चेतना सुप्त थी।
ऐसे समय में विश्वामित्र ने निर्णय लिया कि अब वे अपनी तप:शक्ति, योगबल और ज्ञान को केवल आत्मकल्याण तक सीमित नहीं रखेंगे, अपितु एक ऐसे योग्य माध्यम को तैयार करेंगे जो धर्म और राष्ट्र के रक्षक के रूप में उदित हो। वे जानते थे कि राजा दशरथ एक क्षत्रिय हैं, उनके पास बल भी है, और उन्होंने भी जीवन में युद्ध लड़े हैं, किन्तु वे अब वृद्ध हो चुके हैं, उनका मन मोह और वात्सल्य में अधिक स्थिर हो चुका है। अतः उन्होंने राम को चुना एक ऐसा युगपुरुष, जिसमें ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज दोनों समाहित थे।
विश्वामित्र ने अपने शस्त्र और अस्त्र जो वर्षों की साधना और तपस्या से प्राप्त हुए थे दशरथ को न देकर राम को इसलिए सौंपे क्योंकि वे जानते थे कि ये दिव्य अस्त्र केवल उसे ही दिए जाने चाहिए जो निःस्वार्थ होकर धर्म के लिए उनका प्रयोग करेगा। राम ही वह पात्र थे, जो संयम, विवेक और शौर्य के समुच्चय थे। उन्हें यह भी ज्ञात था कि राम केवल राक्षसों से नहीं लड़ेंगे, वे उस समस्त अधर्म से युद्ध करेंगे, जो युगों तक धर्म की जड़ों को खोखला करता रहा है।
विश्वामित्र ने राम को मांगते हुए अधिकारपूर्वक दशरथ से कहा कि यह तुम्हारा पुत्र नहीं, अब समाज का पुत्र है; यह मात्र तुम्हारे कुल का रक्षक नहीं, अपितु समस्त आर्यावर्त का पालक है। यह मांग कोई साधारण याचना नहीं थी, यह धर्म के पुर्नस्थापन का आह्वान था।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने संत गुरुशरणानन्द जी और संत प्रेमानन्द जी के किस प्रसंग का उल्लेख किया,विश्वामित्र का तेजस किसके साथ था, भैया विनय अजमानी जी की चर्चा क्यों हुई, अधिवेशन वास्तव में क्या है जानने के लिए सुनें